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________________ धवला - टीका २४१ आर्यमक्षु क्षमाश्रमणके उपदेशके अनुसार लोकपूरण समुद्धात होनेपर शेष कर्मोंकी स्थितिको आयुकर्मके समान करता है और महावाचक आर्यनन्दीके उपदेश से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण करता है जो आयुकर्मको स्थितिसे संख्यातगुणी होती है । सर्वत्र आर्यमक्षुके मतके विरोधके रूपमें नागहस्तीका मत पाया जाता है । किन्तु यहाँ वीरसेन स्वामीने आर्यनन्दीका मत दिया है जो उल्लेखनीय है । अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारके साथ ही छठा सत्कर्म खण्ड तथा घवला टीका समाप्त हो जाती है । वीरसेन स्वामी परिचय धवलाकी अन्तिम प्रशस्तिमें वीरसेन स्वामीने अपना परिचय देते हुए लिखा है 'अज्जज्जण दिसिस्सेणुज्जुवकम्मस्स चदसेणस्स । तह णत्तुवेण पचत्युहण्णयभाणुणा मुणिणा ||४|| सिद्ध त छद-जोइस वायरण पमाणसत्यणिवणेण । भट्टारएण टीका लिहिएसा वीरसेणेण ॥५॥ अर्थात् आर्य आर्यनन्दिके शिष्य और चन्द्रसेनके प्रशिष्य, पञ्चस्तु पान्वयभानु, सिद्धान्त, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण और प्रमाणशास्त्रमें निपुण मुनि वीरसेन भट्टारकने यह टीका लिखी । इससे स्पष्ट है कि उनके गुरुका नाम आर्यनन्दी था और दादा गुरुका नाम चन्द्रसेन था । सम्भवतया ये उनके दीक्षागुरु थे और वे पचस्तूप नामके अन्वयमें हुए थे । वीरसेन अपने समय के महान् आचार्य थे । उन्होने जो अपनेको सिद्धान्त, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण और प्रमाणशास्त्रमें निपुण लिखा है, उसका समर्थन धवला - जयधवला टीकाओके अवलोकनसे भी होता है । जयधवलाकी अन्तिम प्रशस्तिमें उनके शिष्य जिनसेनने अपने गुरुका स्मरण करते हुए कहा है'भट्टारक' श्री वीरसेन विद्याओके पारगामी थे और वे साक्षात् केवलीके तुल्य १ 'श्रीवीरसेन इत्यात्तभट्टारकपृथुप्रथ । पारदृशवाधिविद्याना साक्षादिव स केवली || १९ ॥ प्रीणितप्राणिस पत्तिराक्रान्ताशेपगोचरा । भारती भारतीवाज्ञा पट्खण्डे यस्य नास्खलत् ||२०|| यस्य नैसर्गिकी प्रज्ञा दृष्ट्वा सर्वार्थगामिनीम् । जाता सर्वज्ञमद्भावे निरारेका मनीषिण ||२१|| य प्राहु प्रस्फुरद्बोधदीधितिप्रसरोदयम् । श्रुतकेवलिन प्राज्ञा प्रज्ञाश्रमणसत्तमम् ॥२२॥ १६ -
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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