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________________ २४० : जैनसाहित्यका इतिहास और उत्कृष्ट स्थितियोके प्रमाणकी प्ररूपणाको कर्मस्थितिप्ररूपणा कहते है । और आर्यमक्षु क्षमाश्रमणका कहना है कि कर्मस्थित सचित सत्कर्मकी प्ररूपणाको कर्मस्थितिप्ररूपणा कहते है । वीरसेनस्वामीने दोनों ही मतोसे कर्मस्थितिप्ररूपणा करनेकी सम्मति देकर ही अनुयोगद्वार समाप्त कर दिया है। २३ पश्चिम भवस्कन्ध-- इसके सम्बन्धमें वीरसेनस्वामीने इतना ही लिखा है कि जीवका जो अन्तिम भव है, उस अन्तिम भवमें उस जीवके सव कर्मोकी बन्ध मार्गणा, उदय मार्गणा, उदीरणा मार्गणा, सक्रम मार्गणा और सत्कर्म मार्गणा ये पाच मार्गणाएँ पश्चिम स्कन्ध अनयोगद्वारमें की जाती है । इन पाच मार्गणाओकी प्ररूपणा करनेके पश्चात् उस जीवके अन्य प्ररूपणा करनी चाहिये ।' अतः उन्होने केवलिसमुद्धातका वर्णन करके पश्चात् मुक्तिप्राप्ति पर्यन्त क्रियाओका साधारण-सा कथन किया है । मोक्ष - अनुयोगके पश्चात् एक सक्रमका ही वर्णन विस्तारसे किया गया है। शेष अनुयोगद्वारोका तो बहुत ही साधारण-सा कथन किया है। सम्भवतया उनके सम्बन्धमें उस समय अधिक जानकारी प्राप्त नही थी । २४ अल्पबहुत्व --- इस अन्तिम अनुयोगद्वारका कथन कुछ विस्तारसे किया है, क्योकि उसके सम्बन्धमें नागहस्ती और आर्यमक्षु दोनोके उपदेश प्राप्त थे । अनुयोगद्वारका आरम्भ करने हुए वीरसेन स्वामीने लिखा है- 'नागहस्ती भट्टारक अल्पबहुत्व अनियोगद्वार में सत्कर्मकी मार्गणा करते है । यह उपदेश 'पवाइज्ज' परम्परासे प्राप्त है । उक्त सब अनुयोगद्वारोमें अल्पबहुत्वका कथन करते हुए वीरसेनस्वामीने निकाचित-अनिकाचितमें महावाचक' क्षमाश्रमणके उपदेशका निर्देश किया है । यह महावाचक क्षमाश्रमण शायद आर्यमक्षु हो । कर्मस्थिति अनियोगद्वारमें महावाचक' आर्यनन्दिके द्वारा सत्कर्मका कथन करनेका निर्देश है, इनके सम्बन्ध में नागहस्ती पर प्रकाश डालते हुए विचार कर आये है । पश्चिम स्कन्ध सम्बन्धी अल्पबहुत्वका कथन करते हुए लोकपूरण समुद्धातके पश्चात् केवली समुद्धातसे होनेवाले कार्यके सम्बन्धमे दो मत दिये है । महावाचक १. ' महावाचयाण खमासमणाण उवदेसेण ।' पु. १६, पृ ५७७ । २ 'कम्मट्ठदित्ति अणियोगद्दारे एत्थ महावाचया अज्जगदिणो सतकम्मं करोति । महावाचया ट्ठिदिसतकम्म पयासति । पु० १६, पृ. ५७७ । ३. 'महावाचयाणमज्जमखुसमणाणमुवदेसेण लोगे पुण्णे आउभसमं करेदि । महावाचयाणमज्जगदीण उवदेसेण अतोमुहुत्त ठवेदि सखेज्जगुणमाउआदो ।' पु. १६, पृ. ५७८ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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