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________________ धवला-टीका : २३७ मोक्ष, अनुभाग मोक्ष और प्रदेश मोक्ष। प्रकृति मोक्षके दो भेद है-मूलप्रकृति मोक्ष और उत्तरप्रकृति मोक्ष । उनमें भी प्रत्येकके दो भेद है--देशमोक्ष और सर्वमोक्ष । किसी कर्मप्रकृतिका निर्जराको प्राप्त होना अथवा अन्य प्रकृतिरूपसे सक्रान्त होना प्रकृति मोक्ष है। इसका अन्तर्भाव प्रकृति उदय और प्रकृति सक्रममें होता है । अपकर्पणको प्राप्त हुई, उत्कर्षणको प्राप्त हुई, अन्य प्रकृतिमें सक्रान्त हुई और अध स्थितिके गलनेसे निर्जराको प्राप्त हुई स्थितिका नाम स्थितिमोक्ष है । इसी तरह अपकर्पणको प्राप्त हुए, उत्कर्षणको प्राप्त हुए, अन्य प्रकृतिमें सक्रान्त हुए अध स्थिति गलनसे निर्जराको प्राप्त हुए अनुभागको अनुभाग मोक्ष कहते है । अध स्थिति गलनके द्वारा प्रदेशोकी निर्जरा होनेको और प्रदेशोका अन्य प्रकृतियोमें सक्रमण होनेको प्रदेश मोक्ष कहते है । जीव और कर्मका पृथक् हो जाना मोक्ष है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये मोक्षके कारण है। समस्त कर्मोसे रहित, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, चारित्र, सुख, सम्यक्त्व आदि गुणोसे पूर्ण, निरामय, नित्य, निरजन और कृत कृत्य जीवको मुक्त कहते है। इनका कथन निक्षेप, नय, निरुक्ति और अनुयोगदारोसे करना चाहिये। १२ सक्रम-इस अनुयोगद्वारमें कर्म सक्रमका कथन है। उसके चार भेद है-प्रकृति सक्रम, स्थिति सक्रम, अनुभाग सक्रम और प्रदेश सक्रम । एक प्रकृतिका अन्य प्रकृतिरूपमें सक्रमण होनेको प्रकृतिसक्रमण कहते हैं । यह सक्रम मूलप्रकृतियोमें नही होता। तथा वन्धके होने पर सक्रम होता है। बन्धके अभावमें सक्रम नही होता। इत्यादि रूपसे सक्रमका कथन विस्तारसे किया है क्योकि कसायपाहुड और उसके चूणिसूत्रोमें सक्रमका विस्तृत वर्णन मिलता है । १३. लेश्या-इस अनियोगद्वारमें लेश्याका कथन है। लेश्याके मुख्य दो भेद है-द्रव्यलेश्या और भावलेश्या । चक्षुके द्वारा ग्रहण करने योग्य पुद्गलस्कन्धोके रूपको द्रव्यलेश्या कहते है । उसके छै भेद है-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल । भ्रमर आदिके कृष्ण लेश्या है, नीम, केला, आदिके पत्तोके नीललेश्या है। कबूतर आदिके कापोत लेश्या है। जपाकुसुम आदिकी पीतलेश्या है। कमल आदिके पद्म लेश्या है और हस वगैरहके शुक्ल लेश्या है क्योकि इनका रग इसी प्रकारका होता है। मिथ्यात्व, असयम, और कषायसे अनुरक्त मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिको भावलेश्या कहते है। इसी लेश्याके कारण जीव कर्मपुद्गलोसे वद्ध होता है। उसके भी द्रव्यलेश्याकी तरह ही छै भेद है । इन्हीका सक्षिप्त कथन है। १४ लेश्या कर्म-इस अनियोगद्वारमें प्रत्येक लेश्यावाले जीवका कर्म-क्रिया
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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