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________________ २३८ : जैनसाहित्यका इतिहास बतलाई है । यथा-कृष्णलेश्या वाला प्राणी निर्दय, झगडालु, चोर, व्यभिचारी आदि होता है । नीललेश्या वाला विवेकरहित, बुद्धिहीन घमडी, मायाचारी आदि होता है। कापोतलेश्यावाला दूसरोका निन्दक, अपना प्रशसक तथा कर्तव्य अकत व्यके ज्ञानसे रहित होता है। तेजोलेश्यावाला अहिंसक, सत्यभापी, और स्वदारसन्तोपो होता है । पद्मलेश्यावाला तेजोलेश्यावालेसे और शुक्ललेश्यावाला पनलेश्यावालेसे भी अधिक सच्चा, अहिंसक और संयमी जीवन वाला होता है। यह भावलेश्याकी अपेक्षा जानना चाहिए। १५ लेश्यापरिणाम-कौन लेश्या, कितनी वृद्धि अथवा हानिके द्वारा किस लेश्यारूप परिणमन करती है इसका कथन इस अनुयोगद्वारमें है। जैसे कृष्णलेश्यावाला जीव यदि और भी मक्लेशरूप परिणामोको करता है तो वह अन्यलेश्यारूप परिणमन न करके कृष्णलेश्यामें ही रहता है। इसी तरह शुक्ललेश्या वाला जीव यदि और भी अधिक विशुद्ध परिणामोको करता है तो वह शुक्ल लेश्यामें ही रहता है, अन्यम्प परिणमन नहीं करता। किन्तु मध्यकी चारलेश्या वाले जीव हानि या वृद्धिके होनेपर अन्य लेश्यारूप भी परिणमन कर सकते है। इन्ही बातोका कथन इस अनुयोगद्वारमें है । यह सब कथन भावलेश्याकी अपेक्षासे है। १६. सातासात-सात और असातका कथन समुत्कीर्तना, अर्थपद, पदमीमासा, स्वामित्व और अल्पवहुत्व अनुयोगहारोंसे किया गया है। सात और असातके दो भेद किये है-एकान्तसात, अनेकान्त सात, एकान्त असात अनेकान्त असात । सातारूपसे बाधा गया जो कर्म सक्षेप और प्रतिक्षेपसे रहित होकर साता रूपसे वेदा जाता है उसे एकान्त सात कहते है । इससे विपरीत अनेकान्त सात है। इसी तरह जो कर्म असाता स्वरूपसे बाधा जाकर सक्षेप व प्रतिक्षेपसे रहित होकर असातरूपसे वेदा जाता है उसे एकान्त असात कहते है । इससे विपरीत अनेकान्त असात है । आगे इन्हीके स्वामित्व आदिका कथन किया है। १७ दीर्घह्रस्व---इस अनुयोगद्वारमें दीर्घ और ह्रस्वका कथन करते हुए प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशकी अपेक्षा प्रत्येकके चार भेद किये है । यथाप्रकृति दीर्घ, स्थिति दीर्घ, अनुभाग दीर्घ, प्रदेश दीर्घ । माठो प्रकृतियोंका बन्ध होनेपर प्रकृतिदीर्घ और उससे कमका बन्ध होनेपर नोप्रकृतिदीर्घ होता है । सत्त्वकी अपेक्षा, माठ प्रकृतियोका सत्त्व होनेपर प्रकृतिदीर्घ और उससे कमका सत्त्व होनेपर नोप्रकृतिदीर्घ होता है। उदयकी अपेक्षा आठ प्रकृतियोकी उदीर्णा होनेपर प्रकृतिदीर्घ और उससे कमको उदीर्णा होनेपर नोप्रकृतिदीर्घ होता है। इसी तरह जिस-जिस कर्मकी जितनी उत्कृष्ट स्थिति है उसका बन्ध होनेपर स्थितिदीर्घ और उससे कम स्थितिका बन्ध होनेपर नोस्थितिदीर्घ है। इसी
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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