SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३६ - जैनसाहित्यका इतिहास यह शका की गई कि महाबन्धमें जैसा कथन किया गया है वैसा कथन यहाँ क्यो नही करना चाहिए ? उसके समाधानमें कहा गया है कि महाबन्ध तो प्रथम समयमें होनेवाले बन्धमात्रका कथन करता है। उसका कथन करना यहाँ योग्य नही है। चू कि उपक्रम बन्धनके प्रथम समयके पश्चात् सत्वरूपसे स्थित कर्मपुद्गलोमें होनेवाले व्यापारका कथन करता है। अत यहाँ उदीरणा और उपशमका कथन किया है। उदयावलीको छोडकर आगेकी स्थितियोमें अवस्थित कर्मप्रदेशोको उदयावलीमें निक्षिप्त करनेको उदीरणा कहते है। इसका बहुत विस्तारसे कथन किया है । ___इसमें एक बात उल्लेखनीय यह है कि क्षीणकषाय गुणस्थानमें निद्रा-प्रचलाका उदय न माननेवालोंके मतका निर्देश किया है । कर्मप्रकृतिकार२ इसी मतको माननेवाले है। उदीरणाके पश्चात् उपशामनाका कथन है, जो यतिवृषभके चूर्णिसूत्रोकी अनुकृति है। लिखा है-कर्म-उपशामनाके दो भेद है-करणोपशामना और अकरणोपशामना । अकरणोपशामनाके दो नाम है-अकरणोपशामना और अनुदीर्णोपशामना । कर्मप्रवादमें उसका विस्तारसे कथन किया है। करणोपशामनाके भी दो भेद है-देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामना । सर्वकरणोपशामनाके दो नाम और भी हैं-गुणोपशामना और प्रशस्तोपशामना । इस सर्वकरणोपशामनाकी प्ररूपणा 'कसायपाहुड' में करेंगे । देशकरणोपशामनाके अन्य भी दो नाम है-अगुणोपशामना और अप्रशस्तोपशामना । उसीका यहा प्रकरण है । अप्रशोस्तोपशामनाके द्वारा जो प्रदेशाग्न उपशान्त होता है उसमें उत्कर्षण भी हो सकता है, अपकर्पण भी हो सकता है तथा अन्य प्रकृतिरूप सक्रमण भी हो सकता है किन्तु उसका उदय नही हो सकता। इस अप्रशस्त उपशामनाका कथन स्वामित्व, काल आदि अनुयोगोके द्वारा किया गया है । १० उदय-इस अनुयोगद्वारमें कर्मोके उदयका कथन है । उदयके चार भेद किये है-प्रकृति उदय, स्थिति उदय, अनुभाग उदय और प्रदेश उदय । फिर प्रत्येकके मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृतिकी अपेक्षा दो-दो भेद करके उनका कथन अनुयोगोके द्वारा किया है। ११ मोक्ष-कर्मद्रव्यमोक्षके चार भेद किये है-प्रकृति मोक्ष, स्थिति १. 'खीणकसायम्मि णिद्दापयलाणमुदीरणा णथि त्ति भणताणमभिप्पाण्ण' पु. १५, पृ ११०। २ 'इदियपज्जत्तीए दुसमयपज्जत्तगाए [उ] पाउग्गा। णिदापयलाण खीणरागखवगे परिच्चज्ज ॥१८॥-क.प्र, अ ४ । ३ पु. १५, पृ. २७५-२७६ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy