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________________ २३२ : जेनसाहित्यका इतिहास इन चौराठ मूलवर्णो के संयोगी अक्षरोको निष्पन्न करने बतलाया है । तथा उनकी संख्या निकालने गम्बन्धमे पाई गणित-गायाए उद्धृत की है। श्रुतशानावग्णके भेदोो सम्बन्धले श्रुत शानो बोरा भेदोका निन्पण भी महत्त्वपूर्ण है। इसी तरह अवधिमान, मन.पर्ययगान और गेवलज्ञान का कथन भी अपना महत्त्व रराता है। वर्गणापरपणा अनुगोगद्वारगे २३ वर्गणागों का गायन भी महत्त्वपूर्ण है। वर्गणाओके गम्बन्धमे इतना ठोरा कथन अन्यत्र नहीं पाया जाता। उनमे भी प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणा, वादरनिगोदद्रव्यवर्गणा, गोर गूधमनिगोदद्रव्यवर्गणा विशेष उल्लेखनीय है। ___वर्गणाद्रव्यगमुदाहारणे चौदह भनुयोगनारोमेमे गूप्रकारने केवल दो ही अनुयोगद्वारोका कथन किया है । शेप बारहका गायन धवलाकारने किया है। इन तेईम वर्गणामोमे एक आहारवर्गणा भी है । गोदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरफे योग्य मुगलान्धोको माहार द्रव्यवर्गणा सज्ञा है । इनी सण्डके चूलिका नामक अधिकारमे गूकारने आहारद्रव्यवर्गणाका उक्त लक्षण कहा है । उराका व्यारयान करते हुए घवलाकारने लिसा है-आहारशरीरवर्गणाके भीतर कुछ वर्गणाए औदारिक शरीरके योग्य है, कुछ वर्गणाए वैक्रियिकशरीरके योग्य है और कुछ वर्गणाए आहारक शरीरके योग्य है। इस प्रकार आहारशरीरवर्गणा तीन प्रकार की है । इस पर यह शका की गई कि यदि इन तीनो शरीरोको वर्गणाए अवगाहनाभेदसे और सरगाभेदसे अलग-अलग है तो आहारद्रव्यवर्गणा एक ही क्यो कही? इसका उत्तर धवलाकारने यह दिया है कि उन तीनोके वीचमें अगायवर्गणाके द्वारा अन्तर नही है । अर्थात् जैसे आहारवर्गणा और तेजोद्रव्यवर्गणा, तेजोद्रव्यवर्गणा और भापावर्गणा आदिके वीचमें अग्राह्यवर्गणाके द्वारा अन्तर है वैसा अन्तर औदारिकगरीरवर्गणा, वैक्रियिक शरीरवर्गणा और आहारकशरीरवर्गणाके बीचमें नही है इसलिए आहार द्रव्यवर्गणा एक ही है। कर्मप्रकृति, और कर्मचूणिमें भी उक्त तीनो शरीरोके प्रायोग्य वर्गणाओके वीचमै अग्राह्यवर्गणा नही बतलाई है । किन्तु विशेषावश्यकमें वतलाई है । उसके पश्चात्से श्वेताम्बर परम्पराके पचसनह आदिमें तथा टीकाग्रन्थो और चूणियोमें विशेपावश्यकभाष्यकी परम्परा प्रवर्तित देखी जाती है। १. पट. पृ. १३१. २६१-२७९ २ पटख, पु, १४, पृ. ५४१३४ । ३. पट्ख, पु. १४, पृ.५४७ । ४. 'इह चूर्णिकृदादय औदारिकवैक्रियाहारकशरीरप्रायोग्याणां वर्गणानामपन्तरालेऽग्रहणवर्गणा नेच्छन्ति पर जिनभद्रगणिक्षमश्रमणादिभिरिष्यन्त इति तन्मतेनोक्ता। -कर्मप्र. टी., वन्ध-, पृ. ४५ ॥
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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