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________________ धवला-टीका : २३३ प्रत्येकशरीरवर्गणा और बादरनिगोदवर्गणाके सम्बन्धमें कुछ मोटी बातें इस प्रकार है___ एक जीवके एक शरीरमें जो कर्म-नोकर्म स्कन्ध सचित होता है उसकी प्रत्येकशरीरवर्गणा सज्ञा है। यह प्रत्येकशरीर, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, देव, नारकी माहारकशरीरवाले प्रमतसयत और केवलीजिनके होता है। इनको छोडकर बाकी जितने ससारी जीव है उनका शरीर या तो निगोदजीवोसे प्रतिष्ठित होनेके कारण सप्रतिष्ठित प्रत्येकरूप होता है या स्वय निगोद रूप होता है। हाँ, जो प्रत्येकवनस्पति निगोद रहित होती है वह इसका अपवाद है। यहां प्रश्न होता है कि जव मनुष्योका शरीर निगोदिया जीवोसे प्रतिष्ठित माना है तो आहारकशरीरी, सयोगकेवली और अयोगकेवली अवस्थामें मनुष्यका शरीर निगोदिया जीवोसे रहित कैसे हो जाता है ? ___ इसका समाधान करते हुए लिखा है कि जिस प्रमत्तसयत मुनिके आहारक शरीर उत्पन्न होता है उसका जो औदारिक शरीर है वह तो निगोदिया जीवोसे युक्त ही होता है किन्तु उसके जो आहारक शरीर उत्पन्न होता है उसमें निगोदिया जीव नही रहते । इसी प्रकार जब वह मनुष्य वारहवें गुणस्थानमे पहुँचता है तो उसके शरीरमें जो निगोदिया जीव रहते है उनका क्रमसे अभाव होता जाता है क्योकि ध्यानसे निगोदिया जीवोकी उत्पत्ति और स्थितिके कारण हट जाते है। इसपर यहाँ शका की गई है कि जो व्यक्ति ध्यानके द्वारा अपने शरीरमें बसनेवाले निगोदिया जीवोका सहार कर डालता है वह मोक्ष कैसे प्राप्त करता है ? इस प्रसगसे सक्षेपमें जैनो अहिंमाका स्वरूप धवलाकारने' बतलाया है। और प्रमाण रूपसे कुछ उद्धरण भी दिये है। बादरनिगोदवर्गणाका व्याख्यान करते हुए धवलाकारने एक सेचीयवक्खाणाइरिय प्ररूपित कथनका उल्लेख किया है। सेचीयव्याख्याचार्य कौन थे, यह जाना नहीं जा सका । शायद 'सेचीय' शब्द अशुद्ध हो । ___ इस तरह वर्गणाखण्डके अन्त भागमें वर्गणाओका व्याख्यान अनेक दृष्टियोसे मौलिक है । और जो यहाँ है वह अन्यत्र नही । सत्कर्मान्तर्गत शेष अट्ठारह अनुयोगोका परिचय यह हम पहले लिख आये है कि भूतबलि प्रणीत षट्खण्डागमका छठा खण्ड महावन्ध है । धवलाकारने उसपर कोई टीका नही लिखी। केवल आदिके पाच खण्डो पर ही धवला-टीका लिखी है। मगर षट्खण्डागम नामको सार्थक रखनेके १. पट० पु. १४, पृ. ८९-९० । २. हाणपरूवण सेचीयवक्खाणाइरियपरूविद वत्तइस्सामो-पृ. १०१ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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