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________________ धवला-टीका २३१ तिर्यञ्चोमें ईर्यापथकर्म और तप कर्म नही होता, शेप चार कर्म होते है । मनुष्योमें छहो कर्म होते है । इसका कारण यह है कि प्रयोगकर्म तेरहवें गुणस्थान तक सव जीवोके होता है क्योकि यथासम्भव मन, वचन और कायकी प्रवृत्ति तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त सब जीवोके पाई जाती है। समवदानकर्म दसवें गुणस्थान तकके सव जीवोके होता है क्योकि यहाँ तकके सब जीवोके किसीके आठ, किसीके सात और किसीके छ कर्मोंका निरन्तर वन्ध होता रहता है। अध कर्म केवल औदारिक शरीरके आलम्वनसे होता है इसलिये उसका सद्भाव मनुष्य और तिर्यञ्चोके होता है । ईपिथकर्म उपशान्तकपाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवलीके होता है अतः वह भी मनुष्योके ही सभव है। क्रियाकर्म चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे होता है इसलिए वह चारो गतियोमें सम्भव है । तप कर्म छठे प्रमत्तसयत गुणस्थानसे होता है अतः यह भी मनुष्योके ही सभव है । इस प्रकार काफी प्रकाश डाला है। ___ इसी खण्डके प्रकृति अनुयोगद्वारमें प्रसगवश शब्दको गतिका वर्णन करते हुए दो-एक ऐसी बातें कही है जो अन्यत्र हमारे देखने में नही आई। धवलाकारने लिखा है-'शब्दपुद्गल अपने उत्पत्तिप्रदेशसे उछलकर दसो दिशाओमे जाते हुए उत्कृष्टरूपसे लोकके अन्त भाग तक जाते है। यह बात सूत्रके अविरुद्ध व्याख्याता आचार्यवचनोसे जानी जाती है। तथा सभी शब्द लोकपर्यंत नही जा पाते, थोडे जा पाते है । धीरे-धीरे वे घटते जाते है । तथा सभी शब्द एक समयमें ही लोक पर्यन्त नही जाते है । कुछ शब्दपुद्गल दो समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कालमें लोक पर्यन्त जाते है । शब्दोके इस प्रकार 'गमनके तथा उनके 'सुनाई देनेके समर्थनमें धवलाकारने दो प्राचीन गाथाए भी उद्धृत की है। दोनो ही गाथाए शब्दके सम्बन्धमें वर्तमान आविष्कारोकी दृष्टिसे अपना विशेप महत्त्व रखती है। षट्खण्डागममें श्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी उतनी ही प्रकृतियाँ बतलाई है जितने मूल अक्षर और उनके सयोगसे निष्पन्न अक्षरोका प्रमाण होता है। सयोगी अक्षरोका प्रमाण साधनेके लिये सूत्रकारने जो गणित-गाथा दी है उसका" व्याख्यान करते हुए धवलाकारने सत्ताईस स्वर, तेतीस व्यजन और चार योगवाह १ षटल. पु. १३, पृ. २२२-२२४ । २. 'पभवच्चुदस्म भागा वठाण णियमसा अणता दु। पढमागासपदेसे विदियम्मि अणतगुणहीणा ॥२॥'-वही, पृ९ २२३।। ३. 'भासागदसमसेडिं सद जदि सुणादि मिस्सय सुणदि । उस्सेडिं पुण सद्द सुणेदि _णियमा पराधादे ॥२॥'-पृ. २२४ । ४. प. प. १३, पृ. २४९-२६९ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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