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________________ २२० जैनसाहित्यका इतिहास समाधान-भावस्त्री अर्थात् स्त्रीवेदके उदयसे युक्त मनुष्यगतिमें चौदह गुणस्थानोका सत्त्व माननेमे कोई विरोध नहीं है। शका-नौवें गुणस्थानके ऊपर भावभेद नही पाया जाता, अत स्त्रीवेदके उदयसे युक्त मनुष्यगतिमें चौदह गुणस्थान सभव नही है ? समाधान-यहाँ वेदकी प्रधानता नही है । गतिकी प्रधानता है और वह पहले नष्ट नहीं होती। शका-फिर भी वेदविशिष्ट गतिमें तो चौदह गुणस्थान सभव नही हुए ? । समाधान वेदविशेषणके नष्ट हो जाने पर भी उपचारसे स्त्री पुरुष आदि सज्ञाको धारण करने वाली मनुष्यगतिमें चौदह गुणस्थानोके होनेमें कोई विरोध नहीं आता। उक्त चर्चा जैन सिद्धान्तकी मान्यताओसे सम्बद्ध होनेके साथ-ही-साथ दिगम्बरत्व और श्वेताम्वरत्वके मूलकारण वस्त्र और स्त्रीमुक्ति सम्बन्धी विवादसे सम्बद्ध है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय स्त्रीको मोक्ष मानता है, दिगम्बर सम्प्रदाय नही मानता है। किन्तु उक्त सूत्रमें मानुपीके चौदह गुणस्थान बतलाये है। इसीपरसे उसकी टीकामें उक्त विवादको स्थान दिया गया है। चौदह गुणस्थान होनेका मतलब ही मोक्षलाभ है क्योकि चौदहवें गुणस्थानको प्राप्त करनेके पश्चात् ही मुक्तिलाभ होता है । इसीसे टीकामें शंका की गई है कि इसी आर्षसे द्रव्यस्त्रियोको भी मोक्ष सिद्ध हो जायेगा, क्योकि मानुषीके चौदह गुणस्थान ९३ वें सूत्रमें बतलाये है । किन्तु गुणस्थानोकी तरह मार्गणाएं भी भावप्रधान है उनमें भी भावकी मुख्यता है । अत मानुषीसे आशय उस मनुष्यसे है जिसके शरीरसे पुरुप होते हुए भी अन्तरगमें स्त्रीवेदका उदय है। उसे ही भावस्त्री कहते है और स्त्रीशरीरधारीको द्रव्यस्त्री कहते है । भावस्त्रीके ही चौदह गुणस्थान होते हैं, द्रव्यस्त्रीके नहीं। ___ श्वेताम्बरीय शास्त्रोके अनुसार भी सम्यग्दृष्टि जीव मरकर स्त्रीपर्यायमें जन्म नही लेता। जैन कर्मसिद्धान्तका यह एक सर्वसम्मत नियम है। किन्तु वाइसवें तीर्थकर मल्लिनाथको श्वेताम्वर परम्परामें स्त्री माना है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका वन्ध सम्यग्दृष्टिके ही होता है तथा तीर्थकर होने वाला जीव सम्यक्त्वके साथ ही जन्म लेता है। अत इस सिद्धान्तके अनुसार कोई तीर्थङ्कर स्त्री नही हो सकता। किन्तु श्वेताम्वर परम्परामें ऐसा मान लिया गया और उसे हुण्डावसर्पिणी कालका दोप' माना है । उसीको लक्षमें रखकर वीरसेन स्वामीने १ 'दसअच्छेरा पण्णत्ता-उवसग्ग गव्भहरण इत्थी तित्थ । स्था १० ठा । -
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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