SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धवला-टीका • २१९ की ताडपत्रीय प्रतिसे मिलान करनेकी सुविधा प्राप्त हुई तो उसमें 'सजद' शब्द पाया गया। धवलाकी व्याख्यानशैलीपर प्रकाश डालनेकी दृष्टिसे यहाँ उस तिरानवे सूत्रकी टीकाका अर्थ दिया जाता है। वह टीका सस्कृतमें है। यहाँ यह बतला देना उचित होगा कि यद्यपि धवलाटीका सस्कृतमिश्रित प्राकृत-भापामें निबद्ध है तथापि सत्प्ररूपणाके सूत्रोका व्याख्यानसस्कृतभाषा प्रधान है। अस्तु, ___ 'सम्यक्मिथ्यादृष्टि, असयतसम्यग्दृष्टि, सयतासयत और सयत गुणस्थानोमें मानुषी नियमसे पर्याप्तक होती है ॥९३॥ यह सूत्रार्थ है । इसकी टीकाका अर्थ इस प्रकार है शका-हुण्डावसर्पिणी कालमें सम्यग्दृष्टी जीव स्त्रियोमें क्या नही उत्पन्न होते? समाधान--नही उत्पन्न होते । शका-यह किस प्रमाणसे जाना ? समाधान--इसी आपसे जाना । शका-इसी आपसे तो द्रव्यस्त्रियोका मोक्ष जाना भी सिद्ध हो जायेगा ? समाधान नही, क्योकि वस्त्रसहित होनेसे उनके सयतासयत गुणस्थान होता है अतएव उनके सयम उत्पन्न नही होता। शका-वस्त्रसहित होते हुए भी उन द्रव्यस्त्रियोके भावसंयमके होने में कोई विरोध नही होना चाहिये ? समाधान-उनके भावसयम नहीं है, यदि उनके भावसयम होता तो भावअसयमके अविनाभावी वस्त्रादिका ग्रहण करना सभव नही था। शका-स्त्रियोमें चौदह गुणस्थान कैसे हो सकते है ? १-'सामामिच्छाइट्ठी-असजदसम्माइट्ठि-सजदासजदद्वाणे णियमा पज्जत्तियाओ॥१३॥ हुण्डावसर्पिण्या स्त्रीपु सम्यग्दृष्टय किन्नोत्पद्यन्ते इति चेत्, नोत्पद्यन्ते। कुतोऽ वसीयते, अस्मादेवात् । अस्मादेवार्षात् द्रन्यस्त्रीणा निवृति सिद्धयेदिति चेन्न, सवासत्वादप्रत्याख्यानगुणास्थिताना सयमानुपपत्ते । भावसयमस्तासा सवाससामप्यविरुद्ध इति चेत्, न तासा भावसयमोऽस्ति भावासयमाविनाभाविवस्त्रायुपादानान्यथानुपपत्तः। कथं पुनस्तासु चतुर्दशगुणस्थानानीति चेन्न, भावस्त्रीविशिष्टमनुष्यगतौ तत्सत्त्वाविरोधात् । भाववेदो वादरकषायानोपर्यस्तीति न तत्र चतुर्दशगुणस्थानाना सम्भव इति चेन्न, अत्र वेदस्य प्राधान्याभावात्। गतिस्तु प्रधाना न साराद् विनश्यति । वेदविशेषणाया गतौ न तानि सभवतीति चेन्न, विनष्टेऽपि विशेषणे उपचारेण तद्वयपदेशमादधानमनुष्यगतौ तत्सत्त्वाविरोधात् । मनुष्यापर्याप्त वपर्याप्तिप्रतिपक्षाभावत सुगमत्वान्न तत्र वक्तव्यमस्ति ।। पटख, धव. पु. १, पृ ३३२-३३३ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy