SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ घर . . . पोर E और वह - दो हुए । होने का or अपनी नएन प्रारम्भमें ही यह शका उठाई है कि हुण्डावसर्पिणीमें स्वियं उत्पन्न नहीं होता। __ श्वेताम्वरीय' टीकाकारोने भी कर्मसिद्धान्तके उक्त अपनी उक्त मान्यताके साथ बैठानेके लिए उसमें अपवाद सम्यग्दृष्टि स्त्रीनपुंसकोमें उत्पन्न नहीं होता, यह बहुत कदाचित् हो भी जाता है। किन्तु पञ्चसग्रहकारने इस तथोक्त नहीं की। यह उल्लेखनीय है । अस्तु, इस तरह श्री वीरसेन स्वामीने अपनी धवलाटीकामें प्रत्ये करते हुए उससे सम्बद्ध सैद्धान्तिक चर्चाओका उपपादन कर किया है और गूढ-से-गूढ विपयको सरलरूपसे स्पष्ट किया है विषय-परिचय यों तो पखण्डागमके विषय-परिचयसे धवलाका विप जाता है क्योकि वह उसकी टीका है तथापि सात हजार सूत्र श्लोक प्रमाण टीकामें ऐसी भी बहुत-सी प्रासगिक चर्चा ग्रन्थके विपय-परिचयमें आभास नही हो सकता । साथ ही जि का प्रारम्भ किया गया है उसका परिचय कराना भी उचित है जिन, श्रुतदेवता, गणधरदेव, धरसेन, पुष्पदन्त और भूत करनेके पश्चात् प्रथम सूत्रको उत्थानिकाके रूपमें वीरसेनने एक मगल-णिमित्त-हेऊ परिमाण णाम तह य करत वागरिय छप्पि पच्छा वक्खाणउ सत्यमाइनि इसमें कहा है कि मगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम वातोका व्याख्यान करनेके पश्चात् आचार्यको शास्त्रका चाहिये। इसे वीरसेनस्वामीने आचार्य परम्परासे आगत = इसलिए सबसे प्रथम उक्त छै वातोका कथन अपनी धवला किया है । वीरसेन स्वामीसे पहले तिलोयपण्णत्ति में ही उक्त १ 'मणुस्सेसु सम्मट्ठिी इत्थीनपु सगेसु न उववज्जइ त्ति प्राचुर्यवच भवति'-सि चू, पृ ४३। 'तिर्यग् मनुष्येषु स्त्रीवेद-नए सकवेदिपु मध्येऽविरतसम् EPTET fr पर एवंह और सी मन हत है, ~ र सांपर्यापम बम मि । किन्तु बाइट माह। तोपर प्रतिभा पानाजीव सम्पत्तिके स्त्री
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy