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________________ चूणिसूत्र साहित्य · २०३ का गो: उपदेश अपनाइज्जत नहीं था-राब उपदेश पवाइज्जत था। किन्तु आर्यमाका कोई-कोई उपदेग अपवाइज्जत भी था। ___ इस तरह नूणिसूयोर्म विभिन्न उपदेशोकी परम्पराको दर्शन होते हैं । चूणिसूत्रके रचयिता ___चूणिर्मो रनयिता आचार्य गतिवृषभ है । ये गुणधर, आर्यमा और नागहस्तिो उत्तराधिकारी है। पट्टावलि, शिलालेग तथा अन्य स्रोतोंगे आचार्य गतिवृपके जीवन-परिचय, गगय आदिके सम्बन्धमे विशेष जानकारी प्राप्त नही है। इनकी दो ही कृतियां मानी जाती है-एक कमायपाहुटपर चूणिमूत्र और दूसरी प्रिलोकप्राप्ति । किन्तु उनमें अन्य बातोका तो कहना ही क्या, अन्यकर्ता तकका नाम नही पाया जाता। हाँ, ग्रिलोकप्रशप्तिके अन्तमें एक गाथा आई है "पणमह जिणवरवसह गणहरवमह तहेव गुणवराह । दळूण परिमवगह जदिवसह धम्मसुत्तपाटरवसह ।। इस गाया 'जदिवसह ( यतिवृपा ) नाम आया है। और उसके अन्तमें वपह (वृपभ) शब्द होनेसे उसका अनुप्रास मिलानेके लिये अन्य शब्दोके अन्तमें भी 'वसह पद दिया है। जिनवरवृपभ और गणधरवृपभ पद तो स्पष्ट ही है, क्योकि जिनवर वृपभ प्रथम तीर्थदर थे और उनके प्रथम गणधरका नाम भी वृपभ ही था । किन्तु 'गुणवसह' पद स्पष्ट नहीं है । यो तो उसे 'गणहरवसह का विशेपण किया जा सकता है, जैसा कि त्रिलोकप्रज्ञप्ति के हिन्दी अनुवादमे और श्री नाथूरामजी प्रेमीने अपने "लोकविभाग और तिलायपण्णत्ति' शीर्षक लेसमें किया है । किन्तु उससे कोई विशेष चमत्कार प्रतीत नही होता। इसी तरह 'दठूण परिसवसह' पद भी अस्पष्ट है। जयधवलाके सम्यक्त्व-अनुयोगद्वारके प्रारम्भमे मगलाचरणस्पमे भी यह गाथा पाई जाती है । और उससे उक्त पदोकी समस्या सुलझ जाती है । गाथा इस प्रकार है पणमह जिणवरवसह गणहरवसह तहेव गुणहरवसह दुसहपरीसहविसह जइवसह धम्मसुत्तपाढरवसह ॥ इससे अर्थ स्पष्ट हो जाता है जो इस प्रकार है "जिनवरवृषभको, गणधरवृपभको, गुणधरवृपभ (श्रेष्ठ) और दुस्सह परीपह१ जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुरसे प्रकाशित । २ . सा. ३०, पृ०७। -
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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