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________________ २०६ - जनसाहित्यका इतिहास का समाधान करते हुए वीरसेन स्वामीने' कहा है-'विपुलाचलके शिखरपर स्थित महावीररूपी सूर्यसे निकलकर गौतम, लोहार्य, जम्बूस्वामी आदि आचार्य-परम्परासे आकर, गुणधराचार्यको प्राप्त होकर गाथारूपसे परिणत हो, पुन आर्यमा-नागहस्तीके द्वारा यतिवृषभके मुखसे चूर्णिसूत्ररूपसे परिणत हुई दिव्यध्वनिरूपी किरणोसे हमने ऐसा जाना है।' यहाँ यतिवृपभके वचनोको भगवान महावीरकी दिव्यध्वनिके साथ एकरसता बतलानेसे यतिवृपभके प्रति वीरसेन स्वामीकी असीम श्रद्धा व्यक्त होती है। तभी तो वे जिनेन्द्रोमें श्रेष्ठ प्रथम जिन और गणधरोंमें श्रेष्ठ उनके प्रथम गणधरके साथ गुणधर और यतिवृपभको नमस्कार करनेकी प्रेरणा करते है। स्वय यतिवृषभ अपने विषयमें ऐसा नही कह सकते, क्योकि उक्त गाथामें आगत 'जइवसह' शब्द श्लेषरूपसे प्रयुक्त नही जान पडता । स्वय उसके साथ दो विशेषण पद लगे हुए है । यदि उसे श्लेषरूपमे प्रयुक्त माना जाता है तो गाथाके पूरे उत्तरार्धको किसी विशेष्यके साथ प्रयुक्त करना होगा । गाथाके पूर्वार्द्धमें तीन विशेष्यपद है, जिणवरवसह, गणहरवसह और गुणहरवसह । अव इन तीनों विशेष्योमेंसे किसके विशेपणरूपसे उक्त तीनो विशेषणोका प्रयोग किया जाये, यह समस्या उत्पन्न होती है। खीचातानी करके किसी एकके साथ या तीनोके साथ तीनो भेदोको सयुक्त कर देनेपर भी यतिवृषभ जैसे ग्रन्थकारकी कृतिके अनुरूप स्वाभाविकता उसमें नही रहती । अस्तु, दूसरा विशेपण 'धम्मसुत्तपाढरवसह' बतलाता है कि यतिवृषभ धर्मसूत्रके पाठकोंमे श्रेष्ठ थे, किन्तु धर्मसूत्रसे किस सूत्र-ग्रन्थका अभिप्राय है यह स्पष्ट नही होता। इस तरहके शब्दका व्यवहार भी जैनपरम्परामें मेरे देखने में नही आया। वर्तमान त्रिलोकप्रज्ञप्तिके आधारपर यतिवृषभ महावीर-निर्वाणके एक हजार वर्प पश्चात् अर्थात् ई०४७३ से पूर्व नही हो सकते, क्योकि उसमे महावीर-निर्वाणसे एक हजार वर्ष तकके प्रमुख राजवशोकी कालगणना दी हुई है और वह इस रूपमें है कि सहसा उसे प्रक्षिप्त भी नही कहा जा सकता। उनके चूर्णिसूत्रोसे भी कोई वात ऐसी प्रकट नही होती, जिससे उनकी अर्वाचीनता प्रमाणित हो सके । उन्होने अपने चूणिसूत्रोमें 'एसा कम्मपवादे' और 'एसा कम्मपयडीसु' लिखकर कर्मप्रवाद और कर्मप्रकृतिका उल्लेख किया है । १. "एदम्हादो विउलगिरिमत्थयत्थवड्ढमाणदिवायरादो विणिग्गमिय गोदम लोहज्ज-जबु सामियादिआइरियपरपराए आगतूण गुणहराइरिय पाविय गाहासरूवेण परिणमिय अजमखुणागहत्यीहितो जइवसहमुहणमिय चुण्णिसुत्तायारेण परिणददिवज्झुणिकिरणादो णव्वदे।" -क. पा., भा०५, पृ. ३८८ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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