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________________ २०२ • जैनसाहित्यका इहितास • - स्थान दिया, और यद्यपि दूसरे उपदेशको - जिगे जयधवलाकार नागहस्तीका बतलाते है -- पवाइज्जंत बतलानेसे प्रथम उपदेशका अपवाइज्जत होना स्वय सिद्ध है, किन्तु उन्होने अपनी लेसनीसे उसे अपवाइज्जत नही कहा । इसी तरह इसी अधिकारकी सातवी गाथाकी विभाषामे भी दोनो उपदेशोका कथन करके एक ' उपदेशको पवाइज्जत लिया और अन्तमे लिस दिया कि इन दोनो उपदेशोसे त्रसजीवोके कपायोदयस्थान जान लेना चाहिये। ऐसा करके यतिवृपभने जहाँ प्राचीन उपदेशकी सुरक्षा की वहाँ दूसरेकी अवहेलना नही की । यह उनके बडप्पनको तो द्योतित करता ही है, साथ ही आर्यमक्षुके प्रति अनादरभावको भी प्रकट नही करता । किन्तु जयधवलाकारने इसी अध्यायमं तथा आगे आर्यमक्षु और नागहस्तो दोनोके उपदेशको पवाइज्जत भी कहा है । उपयोगाधिकारकी प्रथम गाथाकी विभाषा करते हुए चूर्णिसूत्रकारने लिखा है--' पवाइज्जत उपदेशकी अपेक्षा क्रोधादि कपायोका विशेष अन्तर्मुहूर्त है और उसी पवाइज्जत उपदेशकी अपेक्षा चारो गतियोमे अल्पबहुत्वका कथन करते है ।' इस टीकामें 'जयधवलाकारने दोनोके उपदेशको पवाइज्जत कहा है । इसी तरह सम्यक्त्व अनुयोगद्वारमें भी उन्होने दोनोके उपदेशको पवाइज्जत कहा है । ऐसी स्थितिमे उपयोगाधिकारकी चतुर्थ गाथाके चूर्णिसूत्रोकी व्याख्यामें जो उन्होने आर्यमक्षुके उपदेशोको पवाइज्जत और नागहस्तीके उपदेशोको अपवाइज्जत कहा है, उसके साथ सगति नही बैठती और दोनो कथन परस्पर विरोधी प्रतीत होते है । किन्तु जयधवलाके शब्दोपर ध्यान देनेसे यह विसंगति दूर हो जाती है । जयधवलाकारने वहाँ पहले 'पवाइज्जत उपदेश' की व्याख्या की है कि जो सर्वाचार्य सम्मत आदि हो वह पवाइज्जत उपदेश है । फिर ' अथवा ' कहकर आर्यमक्षुके उपदेशको अपवाइज्जमाण कहा है। किन्तु अपवाइज्जमाणके पहले आगत 'एत्थ' शब्द खास ध्यान देने योग्य है जो बतलाता है कि यहाँपर अपवाइज्जमाणसे आर्यमक्षुका उपदेश ग्रहण करना चाहिये । अत आर्यमक्षुका प्रत्येक उपदेश अपवाइज्जमाण नही है । किन्तु नागहस्तिके साथ एत्थ पद नही है । अत नागहस्ती - १ एसो उवएसो पवाइज्जइ । अण्णो उवदेसो | एहिं दोहि उवदेसेहिं कसायउदयक्खाणि दव्वाणि तसाण । क ० पा० सू०, पृ० ५९२-५०३ । २ 'तेसि चेव भयवताणमज्जमखु णागहृत्थीण पवाइज्जतेण उवएसेण ।' - ज० ध० स० का०, पृ० ५८६४ । ३ ' पवाइज्जतेण पुण उवएसेण सव्वाइरियसम्मदेण अज्जमखु-णागहस्तिमहावाचयमुहकमल विणिग्गएण ।' -ज० ध० प्रे० क०, ६२६१ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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