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________________ चूर्णिसूत्र साहित्य २०१ भारत और रामायणके इस प्रकार आवश्यक रूपसे वाचन अथवा श्रवणका परिचलन अवश्य ही गुप्तकालमे होना चाहिये । अत अनुयोगद्वारसूत्र गुप्तकालसे पूर्वका नही होना चाहिये। ___चूर्णिसूत्रोके साथ उसकी तुलना करनेपर भी उसका कोई प्रभाव परिलक्षित नही होता। प्रत्युत चूर्णिसूत्र ही उससे अधिक प्राचीन प्रतीत होते है। आदेश कषायका स्वरूप बतलाते हुए चूर्णिसूत्रोमें चित्रकर्म, काष्टकर्म और पोत्थकर्मका ही उल्लेख है किन्तु अनुयोगद्वारसूत्रमें लेप्यकर्मका भी निर्देश मिलता है । इसी तरह उसमें पूर्ववत् शेषवत् आदि अनुमानके तीन भेद गिनाये है । जो न्यायसूत्रोमें पाये जाते है। चूर्णिसूत्र • ऐतिहासिक महत्त्व-दो परम्पराएँ ___ यतिवृषभके चूणिसूत्रोमें ऐतिहासिक दृष्टिसे उल्लेखनीय है उपदेशकी दो परम्पराएं, जिनमेंसे एकको वह पवाइज्जमाण (प्रवाह्यमान) और दूसरीको अपवाइज्जमाण कहते है । इन दोनो परम्पराओका निर्देश कसायपाहुडके उपयोग नामक अधिकारमें पाया जाता है। 'पवाइज्जमाण'की व्याख्या बतलाते हुए जयधवलाकारने लिखा है-'जो सब आचार्योके द्वारा सम्मत हो और प्राचीनकालसे बिना किसी विच्छेदके सम्प्रदायक्रमसे आता हुआ शिष्य-परम्पराके द्वारा लाया हो उसे पवाइज्जत उपदेश कहते है । अथवा यहाँ पर भगवान आर्यमखुके उपदेशको अपवाइज्जमाण और नागहस्ती क्षपणके उपदेशको पवाइज्जमाण स्वीकार करना चाहिये । उपयोगाधिकारकी चतुर्थ गाथाकी विभाषा करते हुए चूणिसूत्रकारने लिखा है कि इस गाथाकी विभाषाके विषयमें दो उपदेश पाये जाते है। एक उपदेशके द्वारा व्याख्यान समाप्त करके लिखा है कि अब पवाइज्जत उपदेशके द्वारा चौथी गाथाकी विभाषा करते है। इसी 'पवाइज्जत' की टीकामें जयधवलाकारने उक्त बात कही है। इससे ऐसा प्रकट होता है कि कसायपाहुडके गाथासूत्रोके व्याख्यानमें आर्यमक्षु और नागहस्तीमें मतभेद था। आचार्य यतिवृषभने आर्यमाके मतको प्रथम १ (सू. ४१), २. 'एक्केण उवएसेण चउत्थीए विहासा समत्ता भवदि । पवाइज्जतेण उवएसेण चउत्थीए गाहाए विभासा।' ज.ध.-को पुण पवाइज्जतोवएसो णाम वुत्तमेद ? सन्वाइरिय. सम्मदो चिरकालमवोच्छिण्णसपदायकमेणागच्छमाणो जो सिस्सपरपराए पवाइज्जदे पण्णविज्जदे सो पवाइज्जतोवएसो ति भण्णदे। अथवा अज्जमखुभयवताणमुवण्सो एत्यापवाइज्जमाणो णाम । णागहत्थिखवणाणमुवएसो पवाइज्जतवो त्ति घेतब्बो।' -ज.ध.प्रे. का., पृ. ५९२० ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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