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________________ १९८ जैन साहित्यका इतिहास शका-तो फिर 'आचार्यकथित मत्कर्मप्राभृत और कपायप्राभृतको सूत्रपना कैसे सम्भव हो सकता है। __ समाधान-तीर्थङ्करके द्वारा अर्थस्पगे कहे गये और गणधरो द्वारा ग्रन्यरूपसे निवद्ध द्वादगाग आचार्य परम्परासे निरन्तर चले आ रहे थे। परन्तु कालके प्रभावसे उत्तरोत्तर बुद्धिके क्षीण होनेपर और उन अगोको धारण कर सकनेवाले योग्य पानके अभावमें वे उत्तरोत्तर क्षीण होते गये। तव श्रेष्ठ बुद्धिवालोका अभाव देसकर तीर्थविच्छेदके भयसे पापभीर और गुरु-परम्पराशे श्रुतार्यको ग्रहण करनेवाले आचार्योने उन्हे पोथियोमें लिपिवद्ध किया । अतएव उनमें असूत्रपना नही हो सकता। ___ शका~-तव तो द्वादशागका अवयव होनेसे उक्त दोनो ही वचन सूत्र हो जायेंगे? समाधान-दोनोमेसे किसी एक वचनको सूत्रपना भले ही प्राप्त हो, किन्तु दोनोको सूत्रपना नही प्राप्त हो सकता, क्योकि उन दोनोमे परस्परमे विरोध है । शका-दोनो वचनोमेंसे किसको सत्य माना जाये ? समाधान-यह तो केवली या श्रुतकेवली ही जान सकते है, दूसरा नही जान सकता। उक्त विस्तृत चर्चासे मतभेदका कारण भिन्न आचार्यपरम्पराका होना ही प्रकट होता है। २ जीवट्ठाणके 'अन्तरानुगममे चारो कपायोका उत्कृष्ट अन्तर काल छै मास बतलाया है। उसकी धवला टीकामें लिखा है कि ऐसा मानने पर पाहुडसुत्त (कसायपाहुड) के साथ व्यभिचार नही आता है क्योकि उसका उपदेश भिन्न है । __ ३ जीवस्थान चूलिकाकी धवलामें लिखा है-'यह व्याख्यान अपूर्वकरण गुणस्थानके प्रथम समयमें होनेवाले स्थितिवन्धका सागरोपम कोटिलक्ष पृथक्त्वप्रमाण कथन करनेवाले पाहुडचूर्णिसूत्रसे विरोधको प्राप्त होता है, ऐसी आशङ्का नही करना चाहिये । वह तत्रान्तर है । ४. उक्त चूलिकाकी "धवलामे ही अन्यत्र लिखा है-'इस द्वितीयोपशम आइरिय-कहियाण सतकम्मकसायपाहुडाण कथ सुत्तत्तामदि चेण्ण, तित्थयरकहियत्याण गणहरदेवकयगथरयणाण वारहगाण आशरियपरपराए णिरतरमागयाणं जुगसहावेण बुद्धीसु ओहट्टतीसु भायणाभावेण पुणो ओहट्टिय आगयाण पुणो सुलुबुद्धीण खय दठूण तित्थवोच्छेदभएण वज्जभीरूहि गहिदत्येहि आइरिएहि पोत्यएसु चढा वियाण असुत्तत्तणविरोहादो।' -घटख०, पु० १, पृ० २२१ । २. 'ण पाहुडसुत्तेण वियहिचारो, तस्स भिण्णोवदेसत्तादो।' षट्ख० पु० ५, पृ० ११२ । ३ पटख० पु० ६, पृ० १७७ । ४. पु.६, पृ० ३११ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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