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________________ चूर्णिसूत्र साहित्य : १९७ करनेवाले जीवस्थानके सूत्र के साथ इस कथनका विरोध हो जायगा, सो भी वात नही है क्योकि ये दोनो उपदेश अलग-अलग आचार्योंके मुससे निकले है अत दोनो स्वतन्त्र रूपमे स्थित होनेके कारण उनमें विरोध नही हो सकता ।' यहां चूणिसूत्रके कथनको जीवस्थानके कथनसे स्वतन्त्र मानते हुए उन्हे दो पृथक-पृथक आचार्योंका उपदेश बतलाया है । पट्खण्डागमका छठा सण्ड महावध है, जो स्वतन्त्र ग्रन्थके रूपमें माना जाता है, वह भी आचार्य भूतबलिकी कृति है । जयघवलामें उसको भी तत्रान्तर बतलाया है । महाबन्ध और कसायपाहुडके मतभेदकी चर्चा करते हुए उसमें लिखा' है'महावन्धमे विकलेन्द्रियोंमें स्वस्थानमें ही सक्लेगक्षयमे सख्यात भागवृद्धिरूप वन्धके दो समय कहे हैं । उसके वलसे कसायपाहुडको समझना ठीक नही है क्योकि भिन्न पुरुपके द्वारा रचित ग्रन्थान्तरसे ग्रन्थान्तरका ज्ञान नही हो सकता ।' जय वलाकी तरह धवला टीकामें भी पट्सण्डागम और कसायपाहुडके मतभेदोकी चर्चा अनेक स्थलो पर की गई है । धवलामें लिखा है कि अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें पहले सोलह प्रकृतियोका क्षय होता है, पीछे आठ कपायोका क्षय होता है, यह 'सतकम्मपाहुड' का उपदेश हैं । किन्तु कसायपाहुडका उपदेश है कि आठ कपायोका क्षय होनेपर पीछे सोलह कर्मोका क्षय करता है । ये दोनो ही उपदेश सत्य है ऐसा कुछ आचार्य कहते है । किन्तु उनका ऐसा कहना घटित नही होता, क्योकि उनका ऐसा कहना सूत्रसे विरुद्ध पडता है । तथा दोनो कथन प्रमाण है, यह वचन भी घटित नही होता, क्योकि एक प्रमाणको दूसरे प्रमाणका विरोधी नही होना चाहिये ऐसा न्याय है ।' प्रकृत विपयकी चर्चा करते हुए इसी प्रसगमे धवलामें आगे जो शका-समाधान किया गया है वह भी दृष्टव्य है । लिखा है शका - उक्त दोनो वचनोमेंसे कोई एक वचन ही सूत्ररूप हो सकता है, क्योकि जिन अन्यथावादी नही होते । अत उनके वचनोमें विरोध नही होना चाहिये । समाधान - यह कहना ठीक है किन्तु उक्त वचन तीर्थङ्करके वचन नही है, आचार्योंके वचन है । आचार्यके वचनोमे विरोध होना सम्भव है । १. ' महावधम्मि विगलिदिएसु सत्थाणे चैत्र सकिलेसक्खरण सखेजभागवदिबधस्स वे समया परूविदा, तव्वलेण कसायपाहुडस्स ण पडिवोहणा काउ जुत्ता, तततरेण भिण्णपुरिसकएण तततरस्स पडिवोयणाणुववत्तीदो ।' क० पा० भा० ४, पृ० १६५ । २. 'एसो सतकम्मपाहुड उवसो । कसायपाहुड उवएसो पुण '' - पट्खं०, पु० १, पृ० २१७ |
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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