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________________ चूर्णिसूत्र साहित्य · १९१ 'सर्जकपाय' शिरीषकपाय आदि नोकर्मतद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यकपाय है।' सालवृक्षके कसैले रसको सर्जकपाय और सिरसवृक्षके कसैले रसको शिरीपकषाय कहते है। क्रोध वेदनीय कर्मके उदयसे जीव क्रोधरूप होता है। इसलिये प्रत्ययकषायकी अपेक्षा क्रोधवेदनीय कर्म क्रोध कहा जाता है। इसी तरह मानवेदनीय कर्मके उदयसे जीव मानरूप होता है, इसलिये प्रत्ययकषायकी अपेक्षा मानवेदनीय कर्मको मान कहा जाता है । मायावेदनीयकर्मके उदयसे जीव मायारूप होता है इसलियेमायावेदनीय कर्म प्रत्ययकषायकी अपेक्षा माया है। लोभवेदनीयकर्मके उदयसे जीव लोभी होता है इसलिये प्रत्ययकषायकी अपेक्षा लोभकर्म लोभ कहलाता है । इस प्रकार जो क्रोधादिरूप कर्मको प्रत्ययकषाय कहा है वह नैगम, सग्रह और व्यवहारनयकी अपेक्षासे कहा है । और ऋजुसूत्रनयकी दृष्टिमें क्रोध कर्मके उदयकी अपेक्षा जीव क्रोधकषायरूप होता है इसलिये क्रोधकर्मका उदय प्रत्ययकषाय है । इसीप्रकार मान, माया आदिके विषयमें भी जानना चाहिये। समुत्पत्तिकषायकी अपेक्षा कही जीव क्रोधरूप है और कही अजीव क्रोधरूप है । जिस मनुष्यके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न होता है वह मनुष्य समुत्पत्तिकषायकी अपेक्षा क्रोध है और जिस लकडी, ईंट आदि टुकडेके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न होता है, समुत्पत्तिकषायकी अपेक्षा वह लकडी या ईंट आदिका टुकडा क्रोध है । इसप्रकार एक जीव या एक अजीव, अनेक जीव या अनेक अजीव या मिश्र, इनमेंसे जिसके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न होता है वह समुत्पत्तिकषायकी अपेक्षा क्रोध कहा जाता है। इसी प्रकार मान, माया और लोभके सम्बन्धमें भी जानना चाहिये। आदेशकषायको अपेक्षा चित्रमें अकित क्रोधी जीवकी आकृति-भ्रकुटि चढी हुई, मस्तकमें त्रिवली पड़ी हुई आदि-क्रोधरूप है। इसी तरह चित्रमें अकित गविष्ठ पुरुप या स्त्री आदेशकषायकी अपेक्षा मान है । चित्रमें अकित दूसरेको ठगते हुए मनुष्यको आकृति आदेशकषायकी अपेक्षा माया है और चित्रमें अकित लालची मनुष्यकी आकृति आदेशकषायकी अपेक्षा लोभ है। इसीप्रकार लकडी१ 'नोआगम दव्वकसाओ जहा सज्जकसानो सिरिसकसाओ एवमादि । वही, पृ० २८५ । २ वही , पृ० ०८७। ३ वही, पृ० २९०। ४ क. पा० भा० १, पृ० २९३ आदि। ५ वही, पृ० ३०१। ६ एवमेदे कटकम्मे वा पोत्तकम्मे वा एस आदेसकसाओ णाम ॥ क० पा० भा० १, पृ० ३०३ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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