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________________ १६६ · जैनसाहित्यका इतिहास सादि-अनादि-ध्रुव-अध्रुव प्रदेशबन्ध प्ररूपणा-मे बतलाया है कि ओघसे छह कर्मोका उत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेशवन्ध सादि और अध्रुवबन्ध है अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सादि आदि चारो प्रकारका होता है। मोहनीय और आयुकर्मका उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट जघन्य अजघन्य प्रदेशवन्ध सादि और अध्रुवबन्ध होता है । इत्यादि कथन है । स्वामित्वप्ररूपणामें ओघ व आदेशसे मूल तथा उत्तर प्रकृतियोमें उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशवन्धके स्वामियोका कथन किया है। सामान्यरूपसे जो उत्कृष्ट योगसे युक्त होता है और उत्कृष्ट प्रदेशवन्धके साथ कमसे कम प्रकृतियोका बन्ध करता है वह उत्कृष्ट प्रदेश वन्धका स्वामी होता है। तथा जो जघन्य योगसे युक्त होता है और जघन्य प्रदेशबन्धके साथ अधिकसे अधिक प्रकृतियोका बन्ध करता है, वह जघन्य प्रदेशवन्धका स्वामी होता है। कालप्ररूपणामे-ओघ व आदेशसे मूल तथा उत्तरप्रकृतियोमें जघन्य और उत्कृष्टप्रदेशवन्धके कालका कथन किया गया है । यथा-ओघसे छह कर्मोके उत्कृष्ट प्रदेशवन्धका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल दो समय है, इत्यादि । अन्तरप्ररूपणामें-ओघ व आदेशसे मूल व उत्तरप्रकृतियोके उत्कृष्ट आदि प्रदेशवन्धोके अन्तरकालका कथन है। यथा-ओघसे छह कर्मोके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परार्वतप्रमाण है, इत्यादि । सन्निकर्णप्ररूपणामें-उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध और जघन्यप्रदेशवन्धके आश्रयसे स्वस्थान सन्निकर्ष और परस्थानसन्निकर्पका कथन किया गया है । पहले उत्कृष्टस्वस्थान और उत्कृष्टपरस्थान सन्निकर्पका कथन है, पश्चात् जघन्यस्वस्थान और जघन्यपरस्थान सन्निकर्पका कथन है । यथा-मतिज्ञानावरणकर्मका उत्कृष्टप्रदेशवन्ध करनेवाला जीव श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मन पर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरणका नियमसे उत्कृष्टप्रदेशवन्ध करता है। यह उत्कृष्टस्वस्थान सन्निकर्पका उदाहरण है। इसी प्रकार ओघ और आदेशसे सव सन्निकर्ष घटित किये है। यह प्रकरण काफी बडा है । उत्कृष्ट सन्निकर्षके अन्तमें यहाँ भी 'पवाइज्जमाण' और अपवाइज्जमाण उपदेशोका निर्देश मिलता है। जैसा कि यतिवृपभके चूणिसूत्रोम मिलता है । भंगविचयप्ररूपणामें-ओघ व आदेगसे मूल व उत्तरप्रकृतियोके उत्कृष्ट व जघन्य प्रदेगवन्यके भगोका नानाजीवोकी अपेक्षा कथन किया गया है। उसमेंसे मूलप्रकृतियोकी अपेक्षा कथन नष्ट हो गया है। भागाभागप्ररूपणा-मूलप्रकृतियोमे भागाभागप्ररूपणाका कथन भी नष्ट हो
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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