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________________ महाबध • १६५ उसे योग कहते है । जीवके सव प्रदेशो में योग शक्ति तारतम्यरूपसे रहती है । उसीसे योग स्थान बनते है । पहली अविभागी प्रतिच्छेद प्ररूपणामें बतलाया है कि प्रत्येक आत्म प्रदेशमें योगशक्तिके कितने अविभागी प्रतिच्छेद होते है । उन्हीके समूहको वर्गणा और वर्गणाओके समूहको स्पर्धक कहते है । वर्गणा और स्पर्धक प्ररूपणामें उनकी वर्गणाओ और स्पर्धकोका कथन है । अन्तर प्ररूपणामें बतलाया है कि एक स्पर्धककी अन्तिमवर्गणासे दूसरे स्पर्धककी प्रथमवर्गणामें अविभागी प्रतिच्छेदोकी अपेक्षा कितना अन्तर होता है । स्थानप्ररूपणामें बतलाया है कि कितने स्पर्धक मिलकर एक योगस्थान वनता है । अनन्तरोपनिधामें बतलाया है कि जघन्य योगस्थानसे लेकर उत्कृष्ट योगस्थान तक प्रत्येक योगस्थानमें कितने स्पर्धक वढते जाते है । परम्परोपनिधामें बतलाया है कि कितने योगस्थान जानेपर वे स्पर्धक दूने हो जाते है । समय प्ररूपणा में वतलाया है कि चार समय वाले, पाँच समय वाले, छह समय वाले, सात समय वाले, आठ समय वाले तथा पुनः सात समय वाले, छह समय वाले, पाँच समय वाले, चार समय वाले, और इनसे ऊपरके तीन समय वाले तथा दो समय वाले योगस्थान अलग-अलग जगत् श्रेणिके असख्यातवें भाग प्रमाण है । वृद्धि प्ररूपणामें योगस्थान में होने वाली असख्यात भाग वृद्धि, असख्यातभाग हानि, सख्यात भागवृद्धि - सख्यात भागहानि सख्यातगुणवृद्धि - सख्यातगुणहानि, असख्यातगुणवृद्धि - असख्यात गुणहानि, इन चार हानि - वृद्धियोका कथन किया गया है । अल्पबहुत्व प्ररूपणमें आठ समय वाले सात समय वाले आदि योगस्थानोके अल्पबहुत्वका कथन है । योगस्थान प्रकरणका दूसरा अधिकार प्रदेशबन्ध स्थान प्ररूपणा है । इसमें बतलाया है कि जो योगस्थान है वे ही प्रदेशबन्धस्थान है किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रदेशबन्धस्थान प्रकृति विशेषकी अपेक्षा विशेष अधिक होते है । सर्व-नो सर्वबन्ध – समस्त प्रदेशबन्धको सर्वबन्ध और उससे कमको नो सर्वबन्ध कहते हैं । ओघसे सभी कर्मोका सर्वबन्ध भी होता है और नो सर्वबन्ध भी होता है । आदेशसे नरक गतिमें मोहनीय और आयु कर्मके सिवाय शेष कर्मोंका नो सर्वबन्ध होता है | उत्कृष्ट- अनुकृष्ट प्रदेशबन्धप्ररूपणा - में बतलाया है कि ओघसे सभी कर्मोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी होता है और अनुकृष्ट प्रदेशबन्ध भी होता है । आदेशसे नरक गति में मोह और आयुकर्मके सिवाय शेष छै कर्मोका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है । जघन्यअजघन्य प्रदेशबन्ध प्ररूपणा - में वतलाया है कि ओघसे सब कर्मोंका जघन्य प्रदेशबन्ध भी होता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी होता है ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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