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________________ छक्खडागम १४९ हुआ हो, क्योकि मूल सिद्धान्त तो एक ही है, किन्तु उनमें जो मौलिक मतभेद है उसको देखते हुए यह नही कहा जा सकता कि केवल यह अश चूणिसूत्रकारने वेदनाखण्डसे लिया होगा। ___ पहले हम लिख आये है कि कसायपाहुड (चूणिसूत्रसहित) और षट्खण्डागम ये दोनो दो भिन्न आचार्यपरम्पराओके उत्तराधिकारी है क्योकि दोनोमें अनेक सैद्धान्तिक मतभेद है। अत उन दोनोका उद्गम यदि स्वतत्र भावसे हुआ हो तो असभव नही है। फिर यह हम पहले लिख आये है कि यतिवृपभके गुरु नागहस्ती भी कर्मप्रकृतिप्रधान थे और यतिवृषभने अपने चूर्णिसूत्रोमें कर्मप्रकृतिका निर्देश किया है। अत यह सभव है कि यतिवृपभ भी महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके ज्ञाता हो, जिसके आधारपर षट्खण्डागमके सूत्र रचे गये है । अत दोनोमें क्वचित् शब्दगत या अर्थगत साम्य हो सकता है । छक्खडागम और पण्णवणा षट्खण्डागममें चर्चित विषयोका कोई-कोई अश विभिन्न श्वे० आगमिक साहित्यमें मिलता है। यथा, पट्खण्डागमके वर्गणाखण्डके अन्तर्गत बन्धनअनुयोगद्वारके आदिमें विस्रसाबन्ध और प्रयोगबन्धके दो-प्रभेदोका कथन है। भगवती सूत्रके ८वें शतकके नौवें उद्देशमें भी वही कथन किञ्चित् अन्तरके साथ पाया जाता है। बन्धनअनुयोगद्वारमें प्रयोगवन्धके दो भेद किये है-कर्मवन्ध और नोकर्मवन्ध । तथा नोकर्मबन्धके पाँच भेद किये है—आलापनबन्ध, अल्लीवनबन्ध, सश्लेषबन्ध, शरीरवन्ध और शरीरीबन्ध । भगवतीसूत्रमें प्रयोगबन्धके तीन भेद किये है-अनादिअपर्यवसित, सादिअपर्यवसित और सादिसपर्यवसित । तथा सादिसपर्यवसितके चार भेद किये है-आलापनबन्ध, अल्लियावणबन्ध, शरीरवन्ध और शरीरप्रयोगबन्ध । दोनो ग्रन्थोमें अपने-अपने ढगसे इन बन्धोके जो लक्षण दिये है उनमें शब्दभेद होते हुए भी अभिप्रायभेद नहीं है। षट्खण्डागमकी जीवस्थानचूलिकामें जो कर्मोकी जघन्य स्थिति, उत्कृष्ट स्थिति तथा आवाधा आदिका कथन है, प्रज्ञापनाके २३वें आदि पदोमें भी उसीसे मिलताजुलता हुआ कथन है । जैसे, जीवस्थानचूलिकाके आरम्भमें 'कदिकाओ पयडीओ वधदि' इत्यादि प्रथमसूत्रके द्वारा पाँच प्रश्नोका सूत्रपात करके फिर क्रमसे एक-एक चूलिकाके द्वारा उसका उत्तर लिग गया है। प्रज्ञापनाके २ २३ वें पदके १ पट्ख० पु. १४, पृ० ३६ आदि । २ 'कति पगडी कहिं वधइ कतिहिं टठाणेहिं वधई जीवो। कइ वेदेइ य पगडी अणभावी कतिविहो कस्स ॥२॥'-प्रज्ञा०
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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