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________________ १४८ · जैनसाहित्यका इतिहास उवसामेदि णो सम्मुच्छिमेसु । गन्भोवक्कंतिएसु उवसामंतो पज्जत्तएसु उवसामेदि जो अपज्जत्तसु । पज्जत्तएसु उवसामेतो संखेज्जवस्साउगेस वि उवसामेदि, असंखेज्जवरसाउगेसु वि ॥९॥ अर्थ - - दर्शनमोहनीयकर्मको उपशमाता हुआ जीव कहीं उपशमाता है ? चारो ही गतियोंमें उपशमाता है । चारो ही गतियोमे उपशमाता हुआ पञ्चेन्द्रियो - में उपशमाता है, एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियोंमें नही उपशमाता है । पचेन्द्रियो में उपशमाता हुआ सज्ञियोमें उपशमाता है, असज्ञियोमें नही । मजियोमें उपगमाता हुआ गर्भज जीवोमें उपशमाता है, सम्मूर्छन जन्मवालोमें नही । गर्भजोमे उपशमाता हुआ पर्याप्तको उपशमाता है, अपर्याप्तकोमें नही । पर्याप्तकोमें उपशमाता हुआ सख्यातवर्षकी आयुवाले जीवोमे भी उपशमाता है, और असख्यातवर्षकी आयुवाले जीवोमें भी उपगमाता है ||९|| दोनो की तुलना करनेसे ऐसा आभास होता है कि ऊपरकी गाथाकी ही विभापा नीचेके सूत्र द्वारा की गई है । किन्तु इतने से यह नही कहा जा सकता कि पट्खण्डागमकारके सन्मुख कसायपाहुड था । अत इस तरहके उल्लेग्वोके आधारपर कोई निश्चित निष्कर्ष नही निकाला जा सकता । कसाय पाहुडके' प्रदेशविभक्तिनामक अधिकारमें चूर्णिकारने मिथ्यात्वकर्म जघन्यप्रदेशसत्कर्मके स्वामीका कथन किया है और पट्खण्डागमके वेदनाखण्डके वेदनाद्रव्यविधान नामक अनुयोगद्वारमें द्रव्यसे ज्ञानावरणीयकर्मकी जघन्य वेदनाके स्वामीका कथन किया है। दोनोका यह कथन कुछ अर्थदृष्टिसे और कुछ शब्ददृष्टिसे भी परस्परमें मेल खाता है । यद्यपि दोनो ग्रन्थकारोमें उक्त विपयमें कुछ मौलिक मतभेद भी है, जो दोनो उद्धरणोसे स्पष्ट है और जिसकी चर्चा आगे करेंगे, तथापि दोनोका यह साम्य भी उल्लेखनीय है । इस साम्यका कारण यह भी हो सकता है, कि दोनो ग्रन्थकारोको अपनी-अपनी परम्परासे वह इसी रूप में प्राप्त सुहुमणिगोदेसु कम्मट्ठदिमच्छिदाउओ । तत्थ सव्वव हुआणि अपज्जतभवग्गहणाणि । दीहाओ अपज्जन्तद्धाओ । जदा जदा आउअ वधदि तदा तदा तप्पाओग्गउक्करसएस जोगट्ठाणेसु वधढि । हैट्ठिल्लीणं ट्ठिदीणं णिसेयम्स उक्कस्स पदेस तप्पा ओग्ग उक्करसविसोहिमभिक्ख गदो' - क० पा० सु०, पृ० १८८ । 'जो जीवो सुहुमणिगोदजीवेसु पलिदोवमस्स असखिज्जदिभागेण ऊणिय कम्मट्ठदि मच्छिद्रो । तत्थ य ससरमाणस्स बहुआ अपज्जतभवा, थोवा पज्जतभवा । दीहाओ अपज्जत्तद्धाओ रहस्साओ पज्जत्तद्धाओ । जदा जदा आउअ वधदि तदा तदा तप्पा ओग्गुक्कस्सरण जोगेण बधदि । उवरित्लीण ट्ठिदीणं जिसेयस्म जहण्णपदे हेट्ठिल्लीण ट्ठिदीण णिसेयस्स उक्कस्सपदे बहुसो बहुसो जहण्णाणि जोगट्ठाणाणि गच्छदि । बहुसो बहुमो मदसकिलेस परिणामो भवदि । पर्ख, पु० १०, पृ० २६८ - २७६ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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