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________________ १५० जैनसाहित्यका इतिहास प्रारम्भमें भी एक गाथाके द्वारा कर्मविपयक पाँच प्रश्नोको उठाया गया है-१ कितनी प्रकृतियाँ है ? २ किस प्रकारसे उनका बन्ध होता है, ३ कितने स्थानोके द्वारा बन्ध होता है, ४. कितनी प्रकृतियोका जीव वेदन करता है, और ५ किस कर्मका अनुभाग कितने प्रकारका होता है ? और फिर क्रमसे इन पांचो प्रश्नोका समाधान किया गया है। मूलकर्मोका नाम बतलानेके पश्चात् उत्तरप्रकृतियोकी गणना जैसे चूलिकामे की है, प्रज्ञापनामें भी की है। चूलिकामें प्रत्येक उत्तरप्रकृतिका नाम गिनाया है। प्रज्ञापनामे कही पूरा नाम गिनाया है तो कही सक्षिप्त । जिस प्रकार छठी चूलिका'मे कर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति, उनकी आवाधा और निपेक बतलाये है, प्रज्ञापनामें भी अपने ढगसे उनका उसी प्रकार कथन किया है। चूलिकामें जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिका कथन पृथक पृथक् किया है, प्रज्ञापनामें एक साथ है । विपयकी दृष्टिसे दोनो ग्रन्थोके अन्य भी कोई-कोई कथन मिलते हुए है । किन्तु प्रज्ञापनामे सकलित कर्मविषयक कथन साधारण कोटिका है। भगवती और प्रज्ञापना दोनो ही सग्रह ग्रन्थ है, जिनमे विविध विपय सगृहीत है। उनके देखनेसे प्रकट होता है कि उनकी सकलनाके समय श्रुतका कितना विच्छेद हो चुका था और अवशिष्ट अशोको सुरक्षित रखनेका किस प्रकार प्रयत्न किया गया था। ___ ग्यारहवाँ अग विपाकसूत्र कर्मसिद्धान्तसे ही सम्बद्ध था, किन्तु उपलब्ध विपाकसूत्रमें वह बात नही है, यह उसका परिचय कराते हुए बतला चुके है । कसायपाहुड, चूणिसूत्र, षट्खण्डागम तथा प्रज्ञापना आदि आगमिक साहित्यके पर्यवेक्षणसे एक बात स्पष्ट है कि प्रश्नपूर्वक कथन करनेकी ही प्राचीन आगमिकशैली थी। छक्खडागम और कर्मप्रकृति एक कर्मप्रकृति नामक प्राचीन ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परामे मान्य है। उसकी उपान्त्य गाथामें कहा गया है कि 'मुझ अल्पबुद्धिने जो जैसा सुना वैसा कर्मप्रकृति १. 'पचण्ह णाणावरणीयाण णवण्ह दमणावरणीयाण असादावेदणीय पचण्हमतराइयाणमुक्कस्सओ हिदिवधो तीस सागरोवमकोटाकोडीओ ॥४॥ तिण्णि वाससहस्साणि आवाधा |शा आवाधूणिया कम्मटिळदी कम्मणिसेओ ॥६॥'-पटख०, पु० ६, पृ० १४६ १५० ॥ २ 'नाणावरणिज्जस्स ण भते । कम्मस्स केवतिय काल ठिई पण्णत्ता ? गोयमा! जहन्नेण अतोमुहुत्त उक्कोसेण तीस सागरोवमकोडाकोडीओ तिन्निय वाससहस्साइ अवाहा अबाहूणिता कम्मठिई कम्मणिसेगो।'-प्रशा०, २३ प० । ३. 'इय कम्मप्पगडीओ जहासुय तीयम्प्पभ ईणा वि। सोहियाणाभोगकय कह तु वरदिट्ठीवायन्नु ॥५६।।-कर्मप्र०, सत्ता० ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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