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________________ छक्खंडागम १३७ पुद्गलस्कन्ध पांचो शरीर, भापा और मनके अयोग्य होते है उनको अग्रहणवर्गणा कहते है । प्रथम उत्कृष्ट अग्रहण द्रव्यवर्गणामें एक अक मिलाने पर जघन्य तैजसशरीरद्रव्यवर्गणा होती है। इसके पुद्गलस्कन्ध तैजसशरीरके योग्य होते है । इसलिए यह ग्रहणवर्गणा है । __ उत्कृष्ट तैजसशरीरद्रव्यवर्गणामे एक अक मिलाने पर दूसरी अग्रहण द्रव्यवर्गणा सम्बन्धी जघन्य अग्रहणद्रव्यवर्गणा होती है। यह पाँच शरीरोके योग्य नही होती, इसलिये इसे अग्रहणद्रव्यवर्गणा कहा गया है । दूसरी उत्कृष्ट अग्रहण द्रव्यवर्गणामें एक अक मिलाने पर जघन्य भापाद्रव्यवर्गणा होती है । भापाद्रव्यवर्गणाके परमाणु पुद्गलस्कन्वभापाओके तथा शब्दोके योग्य होते है। उत्कृष्ट भापाद्रव्यवर्गणामें एक अक मिलाने पर तीसरी जघन्य, अग्रहणद्रव्यवर्गणा होती है । इसके भी पुद्गलस्कन्ध ग्रहणयोग्य नहीं होते। तीसरी उत्कृष्ट अग्रहणद्रव्यवर्गणामें एक अक मिलाने पर जघन्य मनोद्रव्यवर्गणा होती है । मनोद्रव्यवर्गणासे द्रव्यमनकी रचना होती है। उत्कृष्ट मनोद्रव्यवर्गणामें एक अक मिलाने पर चौथी जघन्यअग्रहणद्रव्यवर्गणा होती है। यह भी ग्रहण योग्य नही होती। चौथी उत्कृष्ट अग्रहणद्रव्यवर्गणामे एक अक मिलाने पर जघन्यकार्मणशरीरद्रव्यवर्गणा होती है। कार्मणद्रव्यवर्गणाके पुद्गलस्कन्ध आठ कर्मोके योग्य होते है। ___ इस प्रकार पूर्वपूर्वकी उत्कृष्ट वर्गणामें एक एक प्रदेशकी वृद्धि होने पर आगेकी जघन्य वर्गणा होती है। प्रथम परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणाको छोडकर प्रत्येक वर्गणाके अपने जघन्यसे लेकर उत्कृष्टपर्यन्त बहुतसे भेद होते हैं । धवलाटीकामें उनका कथन किया है । विस्तार भयसे यहाँ हमने कथन नहीं किया । इन तेईस वर्गणाओमेंमे आहारवर्गणा, तैजसवर्गणा, भापावर्गणा, मनोद्रव्यवर्गणा और कार्मणवर्गणा ये पांच वर्गणाएं ही ग्राह्यवर्गणाएँ है क्योकि जीवके द्वारा इनका ग्रहण होता है । अत वन्धनीयमें इन पाँचकी ही उपयोगिता है, शेपवर्गणाएँ बन्धनीय नही है। किन्तु शेपवर्गणाओका कथन किये बिना इन पाँच बन्धनीयवर्गणाओका कथन नही किया जा सकता। इसलिये बन्धनीयके सम्बन्धमें २३ पुद्गलवर्गणाओका कथन किया गया है। और उसीके कारण इस पचम खण्डका नाम वर्गणा खण्ड है। धवलाटीकामें वीरसेनस्वामीने प्रत्येक शरीरद्रव्यवर्गणा और बादरनिगोद द्रव्यवर्गणाका विवेचन बहुत विस्तारसे किया है। इसके पश्चात् सूत्रकारने यह बतलाया है कि इन तेईस वर्गणाओमेसे कौन वर्गणा
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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