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________________ १३६ - जैनसाहित्यका इतिहास आगे वर्गणाका कथन करते हुए २३ वर्गणाएँ वतलाई हैं, जो इसप्रकार है एकप्रदेशी परमाणु पुद्गलद्रव्यवर्गणा १, द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, चतु प्रदेशी, पचप्रदेशी, पट्प्रदेशी, सप्तप्रदेशी, अष्टप्रदेशी, नवप्रदेशी, दसप्रदेशी, आदि सख्यातप्रदेशी, परमाणु पुद्गल द्रव्यवर्गणा २, असख्यातप्रदेशी परमाणु पुद्गलद्रव्यवर्गणा ३, अनन्तप्रदेशी, परमाणु पुद्गलद्रव्यवर्गणा ४, आहार द्रव्यवर्गणा ५, अग्रहण द्रव्यवर्गणा ६, तेजसशरीर द्रव्यवर्गणा ७, अग्रहण द्रव्यवर्गणा ८, भापाद्रव्यवर्गणा ९, अग्रहणद्रव्यवर्गणा १०, मनोद्रव्यवर्गणा ११, अग्रहण द्रव्यवर्गणा १२, कार्मणद्रव्यवर्गणा १३, ध्रुवस्कन्धद्रव्यवर्गणा १४, सान्तर निरन्तर द्रव्यवर्गणा १५, ध्रुवशून्यवर्गणा १६, प्रत्येक शरीर द्रव्यवर्गणा १७, ध्रुवशून्य द्रव्यवर्गणा १८, वादर निगोद द्रव्यवर्गणा १९, ध्रुवशून्य द्रव्यवर्गणा २०, सूक्ष्म निगोदवर्गणा २१, ध्रुवशून्य द्रव्यवर्गणा २२, महास्कन्धवर्गणा २३ । । इन तेईस वर्गणाओंके नाम सूत्रकारने वाईस सूत्रोके द्वारा बतलाये है। इसका कारण यह है कि उन्होने प्रथम चार वर्गणाओके पश्चात प्रत्येक वर्गणा का निर्दश इस प्रकार किया है-'अनन्तानन्त प्रदेशी परमाणु पुद्गल द्रव्यवर्गणाके ऊपर आहार द्रव्यवर्गणा है ॥७९॥ 'आहार द्रव्यवर्गणाके ऊपर अग्रहणद्रव्यवर्गणा है ॥८॥' 'अग्रहण द्रव्यवर्गणाके ऊपर तैजसद्रव्यवर्गणा है ॥८१ ॥' 'तेजस द्रव्यवर्गणाके ऊपर। अग्रहण द्रव्यवर्गणा है ।।८२॥' इत्यादि । इसका कारण यह है कि पूर्वपूर्वकी उत्कृष्ट वर्गणामें एक अक मिलाने पर आगेकी जघन्य वर्गणाका प्रमाण होता है। यथा-सवसे प्रथम परमाणु पुद्गल द्रव्यवर्गणा तो एकपरमाणुरूप है। उसमे एक परमाणुके मिल जानेसे अर्थात् दो परमाणुओके समागमसे द्विप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा होती है। यह जघन्यसख्याताणुवर्गणा है क्योकि जघन्य संख्यातका प्रमाण दो है। उत्कृष्ट सख्यातप्रदेशो परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणामें एक अक मिलाने पर जघन्य असख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणा होती है। उत्कृष्ट असख्यातासख्यातप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणामें एक अंक मिलाने पर जघन्य अनन्तप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा होती है। अपने जघन्यसे अनन्तगुणी उत्कृष्ट अनन्तप्रदेशी पुद्गलद्रव्यवर्गणा होती है। ये चारो ही वर्गणाएँ अग्राह्य है-जीवके द्वारा इनका ग्रहण नही होता । उत्कृष्ट अनन्तप्रदेशी द्रव्यवर्गणामें एक अक मिलाने पर जघन्य आहारद्रव्यवर्गणा होती है । औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरके योग्य पुद्गल स्कन्धोको आहारद्रव्यवर्गणा कहते है । उत्कृष्ट आहारद्रव्यवर्गणामे एक अक मिलाने पर प्रथम अग्रहणद्रव्यवर्गणा सम्बन्धी सर्वजघन्यवर्गणा होती है । जो
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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