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________________ १३४ - जैनसाहित्यका इतिहास सादिवत्र शिकवन्ध कहते है-विगदृश स्निग्धता और बिगदग रूक्षताम वन्ध होता है । और रामस्निग्धता और रामग्क्षतामे भेद होता है । अत णिद्धस्स णिद्वेण दुराहिएण रहुपगररा रहुपेण दुराहिएण । णिद्धररा ल्हुक्सेण हवेदि बधो जहण्णवज्जो विगगे गमे वा ॥३६॥ स्निग्ध पुद्गलका दो अधिना ग्निग पुद्गलो गाय और रूक्ष पुद्गला दो अधिक रुक्ष पुद्गलके साथ वन्ध होता है तथा स्निग्धगुण पुद्गलका सक्षगुण पुद्गलके साथ राग या विषग गुण होने पर वन्न होता है, जघन्गगुणवाला वध नहीं होता। उक्त गाथा ग्वेताम्बर परम्पराग भी पाई जाती है। किन्तु द्वितीय पक्तिके अर्यमे दोनोमे मतभेद है। इसका विवंचन यवास्थान किया जायेगा। उक्त गाथागे पहले इग बन्धनअनुयोगद्वारगं दी गून है 'वेमादा णिद्धदा वेमादा ल्हारादावधो ॥ ३२ ॥ गगणिद्धदा गमल्दुस्खदा भेदो ।। ३३ ॥ श्वेता० प्रज्ञापनाम भी ठीक इसी आशयको शब्दमा लिये हुए एक गाथा और तदनन्तर उक्त गाथा इस प्रकार आती है समणिद्धयाए बधो न होति गमलुक्मयाए वि ण होति । वेमायणिद्धलुनसत्तणेण बधो उ मवाण ॥१॥ णिद्धस्स णिद्वेण दुयाहिएण लुक्सस्ग लुपयेण दुयाहिएण । निद्धस्स लुक्खेण उवेइ बधो जहण्णवज्जो विरामो गमो वा ॥२॥ -प्रज्ञापना०, परि० पद १३, सू० १८५ पुद्गलोके बन्धका स्वरूप बतलाकर आगे लिसा है 'इस प्रकार वे पुद्गल बन्धनपरिणामको प्राप्त होकर अभ्ररूपसे, मेघरुपसे सन्ध्यारूपसे, विजलीरूपसे, उल्कारुपसे, कनक ( वज्र ) रूपसे, दिशादाहरूपसे, धूमकेतुरूपसे, इन्द्रधनुपरूपसे, क्षेत्रके अनुसार, कालके अनुसार, ऋतुके अनुसार, अयनके अनुसार, पुद्गलके अनुसार, वन्धनपरिणामरूपसे परिणत होते है।' ये सब तथा इनसे अन्य जो अमगलप्रभृति बन्धनपरिणामरूपसे परिणत होते है वह सब सादिवससिक बन्ध है ॥३७॥ प्रयोगवन्धके दो भेद है-कर्मवन्ध और नोकर्मवन्ध । नोकर्मबन्धके पांच भेद है-आलापनवन्ध, अल्लीवनवन्ध, संश्लेषवन्ध, शरीरबन्ध और शरीरिवन्ध ॥४०॥ शकटोका, यानोका, युगोका,' गड्डियोका, गिल्लियोका, रथोका, स्यन्दनो - १ जो घोडे और खच्चरोंसे खींची जाती है। २ हल्का भार ढोने वाली गाडी। ३ युद्धोपयोगी साधनोंसे सम्पन्न रथ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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