SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छक्खंडागम १३३ वेद, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, दीप, मोह, कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ललेश्या, असगतभाव, अविरतभाव, अज्ञानभाव, मिथ्यादृष्टिभाव ये सव विपाकप्रत्ययिक अथवा ओदयिक भाव है ॥ १५॥' अविपाक प्रत्ययिक जीवभाववन्धके दो प्रकार है--औपशमिक और क्षायिक ॥१६॥ उपशान्तक्रोध, उपशान्तमान, उपशान्तमाया, उपशान्तलोभ, उपशान्तराग, उपशान्तदोप, उपशान्तमोह, उपशान्तकपाय, वीतरागछद्मस्थ, ओपशमिकसम्यक्त्व और ओपशमिकचारित्र आदि जितने ओपशमिक भाव है वे सब ओपशमिक अविपाक प्रत्ययिक जीवभाववन्ध है ॥१७॥ क्षीणक्रोध, क्षीणमान, क्षीणमाया, क्षीणलोभ, क्षीणगग, क्षीणदोप, क्षीणमोह, क्षीणकपाय, वीतरागछद्मस्थ, क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकचरित्र, क्षायिकदानलब्धि, चायिकलाभलब्धि, क्षायिकभोगलब्धि, क्षायिकपरिभोगलब्धि, क्षायिकवीर्यलब्धि, केवलज्ञान, केवलदर्शन, सिद्ध, बुद्ध, परिनिवृत्ति, सर्वदु खअन्तकृत् इसी प्रकार अन्य भी जो क्षायिक भाव है वे सव क्षायिक अविपाक प्रत्ययिक जीवभाववन्ध है ॥ १८ ॥ " एकेन्द्रिय लब्धि, द्वीन्द्रिय लब्धि, त्रीन्द्रिय लब्धि, चतुरिन्द्रिय लब्धि, पञ्चेन्द्रिय लब्धि, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभगज्ञानी, आभिनिवोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन पर्ययज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी अवधिदर्शनी, सम्यक्मिथ्यात्वलब्धि, सम्यक्त्वलब्धि, सयमासयमलब्धि, सयमलब्धि, दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, परिभोगलब्धि, वीर्यलब्धि, आचारधर, सूर्यकृद्धर, स्थानवर, समवायधर, व्याख्याप्रज्ञप्तिधर, नाथधर्मधर, उपासकाध्ययनधर, अन्तकधर, अनुत्तरोपपादिकदशधर, प्रश्नव्याकरणधर, विपाकसूत्रधर, दृष्टिवादधर, गणी, वाचक, दशपूर्वघर, चतुर्दशपूर्वधर ये तथा इसी प्रकारके अन्य जो क्षायोपशमिक भाव है वे सब तदुभयप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है ||१९|| इसी प्रकार अजीवभावबन्धके भी तीन भेद करके विपाकप्रत्ययिक, अविपाक प्रत्ययिक और तदुभयप्रत्ययिक अजीवभाववन्धोका कथन किया है । द्रव्यबन्धके दो भेद है -- भगमद्रव्यबन्ध और नोआगमद्रव्यबन्ध | नोआगमद्रव्यबन्धके दो भेद है -- प्रयोगवन्ध और विस्रसाबन्ध । विस्रसबन्धके दो भेद है――सादि और अनादि । धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय - देश और धर्मास्तिकाय प्रदेश, अधर्मास्तिक, अधर्मास्तिकदेश, और अधर्मास्तिकप्रदेश, आकाशास्तिक, आकाशास्तिदेश, आकाशस्तिप्रदेश, इन तीनो ही अस्तिकायोका जो परस्पर प्रदेशबन्ध है वह अनादिविस्रसाबन्ध है ॥३१॥
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy