SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३२ जनसाहित्यका इतिहास जीवादि द्रव्योका राम्मिलन ), अनुभाग, तर्क, काला, मन, मानगिक, भक्त, कृत, प्रतिरोवित आदिकर्ग (अर्थपर्याय और व्यन्जन पर्यायस्पगे गव द्रव्योंकी आदि ), अरह कर्म (राव द्रव्योकी अनादिता), गव लोक, गव जीव, और राव भावोंको सम्यक् प्रकाररो एक साथ जानते-देराते हुए विहार करते है ।।२।। __ इस प्रकार प्रकृतिमनुयोगद्वारमै ज्ञानावरणार्मको प्रमातियोो सम्बन्धगे ज्ञानके भेदोकी मौलिक चर्चा है। यही चर्चा रायगिदि और तत्त्वार्थयातिकके प्रथम अध्यायमे भागत ज्ञानविषयक कथन का आधार है। उगका गायन इन गन्योफे प्रकरणमे किया जायगा। इगी प्रकार दर्शनापरणीय आदि कर्मों की प्रकृतियोका कथन प्रकृतिअनुयोगद्वारमे किया गया है। अन्तमे कहा है कि उन प्रतियोमेमे यहाँ कर्मप्रकृतिका प्रकरण है। वन्धनअनुयोगद्वार वन्धनअनुयोगद्वारको आरम्भ करते हुए यूप्रकारने बन्धनके चार भेद किये है-१ वन्ध, २ वन्धक, ३ वन्धनीय मोर ४ बन्धविधान ॥१॥ वन्धके चार भेद है-नामवन्ध, स्थापनावन्ध, द्रव्यवन्ध और भाववन्य ॥२॥ नेगम, सग्रह और व्यवहाग्नय सब बन्योको स्वीकार करते है ॥४॥ ऋणुमूननय स्थापनावन्धको स्वीकार नही करता ॥५॥ गन्दनय नामवन्य और भाववन्धको स्वीकार करता है ॥६॥ जिस जीव या अजीवका 'वन्ध' यह नाम रखा जाता है वह नामवन्य है। काष्ठकर्म, चित्रकर्म आदिमे 'यह वन्ध है' ऐमी स्थापना करना स्थापनावन्ध है । भाववन्धके दो भेद है-आगम भाववन्ध और नोआगम भाववन्ध । यह सब वर्णन पूर्ववत् है। नोआगम भाववन्धके दो भेद है-जीवभाववन्ध और अजीवभाववन्ध । जीवभाववन्धके तीन भेद है-विपाकप्रत्ययिक, अविपाकप्रत्ययिक और तदुभयप्रत्ययिक ॥१४॥ ___ कर्मोके उदय और उदीरणाको विपाक कहते है । विपाक जिस भावका कारण होता है वह विपाक प्रत्ययिक जीवभाववन्ध है। और कर्मोके उदय और उदीरणाके अभावको अथवा कर्मोंके उपशम वा, क्षयको अविपाक कहते है । अविपाक जिस भावका कारण है वह अविपाकप्रत्ययिक जीवभाववन्ध है। और विपाक तथा अविपाकसे जो भाव उत्पन्न होता है वह तदुभयप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है । 'देवभाव, मनुष्यभाव, तिर्यञ्चभाव, नारकभाव, स्त्रीवेद, पुरुपवेद, नपुसक १. षट्ख०, धवला०, पु० १४ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy