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________________ छक्खडागम • ११३ अत्पबहुत्वमें जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्योत्कृष्ट पदोके द्वारा पहले आठो मूलकर्मोके आश्रयसे अल्पबहुत्वका विचार किया है । फिर उत्तरप्रकृतियो के आश्रयसे अनुभागके अल्पवहुत्वका कथन किया गया है । इस कथनमे उल्लेखनीय बात यह है कि पहले गाथासूत्र के द्वारा कथन किया गया है फिर गाथासूत्रमे प्रतिपादित कथनको गद्यात्मक सूत्रोके द्वारा कहा गया है । धवलाटीकामे इन गाथासूत्रोके आधारपर रचे गये गद्यात्मक सूत्रोको चूर्णिसूत्र नाम दिया है । कसायपाहुडकी गाथाओके ऊपर यतिनृपभ द्वारा रचे गये चूर्णिसूत्रोकी तरह ही उन्हे यह सज्ञा दी गई है । ये गाथासूत्र छे है और तीन-तीनको सख्यामें दो वार आये है । अर्थात् पहले तीन गाथाएँ देकर उनपर चूर्णिसूत्र दिये गये है और पुन तीन गाथाएँ देकर उनपर चूर्णिसूत्र दिये गये है ! गाथाएँ प्रचीन प्रतीत होती है, इसीसे उन्हें ज्यो-का-त्यो देकर भूतबलीने अपने सूत्रो के द्वारा उनमें कथित विपयका प्रतिपादन किया है । अल्पबहुत्वानुगमके पश्चात् तीन चूलिकाएँ है । प्रथमचूलिकाके प्रारम्भमें ये दो गाथाएँ है 'सम्मत्तप्पत्ती' विय सावय विरदे अणतकम्मसे । दसणमोहक्खवए कसाय उवसामए य उवसते ॥ ७ ॥ खवए य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असखेज्जा तव्विवरीदो कालो सखेज्जगुणा य सेडीओ ॥ ८ ॥ 'सम्यक्त्वोत्पत्ति अर्थात् सातिशय मिथ्यादृष्टि, श्रावक, विरत ( महाव्रती), अनन्तानुबन्धी कषायका विसयोजन करनेवाला, दर्शनमोहका क्षपक, चारित्रमोहका उपशामक, उपशान्तकषाय, क्षपक, क्षीणमोह, स्वस्थानजिन और योगनिरोध में प्रवृत्त जिन इन ग्यारह स्थानोमे उत्तरोत्तर असख्यात गुणी निर्जरा होती है । परन्तु निर्जराका काल उससे विपरीत है अर्थात् अन्तसे आदिकी ओर बढता हुआ सख्यात गुणित श्रेणिरूप है । इन दोनो गाथाओको देकर सूत्रकारने गद्यसूत्रके द्वारा गायोक्त विपयका प्रतिपादन किया है । ये दोनो गाथाएँ दिगम्बर तथा श्वेताम्बर साहित्यमें अन्यत्र भी पाई जाती है किन्तु इनकी सबसे प्राचीन उपलब्धि पट्खण्डागममें ही पाई जाती है क्योकि अन्य जिन ग्रन्थोंमें ये दोनो गाथाएँ पाई जाती है उन सबमें कर्मप्रकृति प्राचीन १ पट्ख, पु० १२, पृ० ७८ । २ कार्ति० अनु०, गा०, गो० जी० का० गा० । ३ ' सम्मत्तप्पत्तिसावयविरए सजोयणाविणासे य । दसणमोहक्खवगे कसायउवसामगुव
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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