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________________ ११२ जनसाहित्यका इतिहाग उमीप्रकार गातो कर्मोग रियतिबन्धाध्यवगायरगानीको प्रम्पणा करना चाहिये ।। २५१ ।। इत्यादि। अनुकृष्टि अनुगोगद्वार प्रत्येक गितिो स्थितिवन्याध्ययगायरयानोगी रागानता व असमानताको बतलाता है। गया-भानावग्णीयशी गपन्य ग्यितिमें जो स्यितिनन्वाध्यवमायग्यान है द्वितीय स्थितिमे ने म्यितिबन्धात्यवगागम्यान भी है और अपूर्व भी है। तीव्र-मन्दता अनुयोगार जपन्य व उनष्ट परिणामोरे अनिभागी प्रतिन्ठेदोके अल्पबहुन्वको प्रमपणा करता है । यथा-जानावरणीगगा जघन्यस्थितिगम्बन्धी जघन्यस्थितिबन्धात्यवगायम्मान गवगे मन्ः अनुभाग वाला है ॥ २७२ ॥ उमीला उत्कृष्ट स्थितिवन्याध्यवगायम्यान अनन्तगुणा है ॥ २७३ ॥ न्यादि । ७. वेदनाभावविभान-पोये वेदनानामा गठक वेदनाभाववि माननामक राप्तम अधिवारमें भी तीन अनुयोगद्गार है-पदमीमामा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । पदो की मीमामाको गदगीमागा कहते हैं। यह पहला अनुयोगदार है। म्वामिलगे यहां कर्मभागके स्वामित्वका ग्रहण छिया गया है। यह दूगरा गनुयोगद्वार है। अल्पबहुत्वसे भी यहां गर्मभावके अल्पवहृत्वका ही ग्रहण पिया गया है । यह तीसग अनुयोगद्वार है। पदमीमामामे भानावग्ण आदि आठ कर्मोको उत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य भाववेदनाओका विचार किया गया है। यया-जानावरणीयवेदना उत्कृष्ट भी होती है, अनुत्कृष्ट भी होती है, जघन्य भी होती है और अजघन्य भी होती है । इसी प्रकार शेप मातो कर्मोकी भी जाननी चाहिये। ___ स्वामित्वमें उत्कृष्ट आदि चार पदोकी अपे।ा ज्ञानावरणीय आदि कर्मोकी भाववेदनाके स्वामीका कथन किया है । यथा-भावमे ज्ञानावरणीयकर्मकी उत्कृष्ट वेदना किसके होती है ? पञ्चेन्द्रिय सजी मिथ्यादृष्टि, मव पर्याप्तियोसे पर्याप्त अवस्थाको प्राप्त, माकार उपयोगसे युक्त, जागृत और नियामसे उत्कृष्ट सक्लेशको प्राप्त जीवके द्वाग बांधे गये उत्कृष्ट अनुभागका मत्त्व जिम जीवके होता है उसके ज्ञानावरणीय वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है । चूकि उक्त उत्कृष्ट अनुभागका सत्त्व एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चोइन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय, सनी और असज्ञी, वादर-सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थाको प्राप्त जीव जीवोके यथायोग्य चारो गतियोमेंसे किसी भी एक गतिमें वर्तमान रहते हुए होता है अतएव उक्त जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है। इसी प्रकारसे आठो कर्मोकी उत्कृष्ट आदि वेदनाओके स्वामित्वका कथन किया गया है। १ पट्ख०, पु. १० में ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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