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________________ ११४ · जैनसाहित्यका इतिहास है। किन्तु कर्गप्रगति गद्गगगगे अर्वाचीन है और उगमें योटा-गा गब्दभेद भी है। उन्ही गाथाओो मामाग्गे तपासूगगे' भी पागून द्वारा उक्त विषयका प्रतिपादन किया गया है। उग तरह ऐनिहामिा दृष्टिगे भी उनत दोनो गाथागोषी स्थिति उरलेगनीय है। दूसरी चूलिका दूगरी चूलिका अनुभागवन्यायवनायम्यानी प्रपणा बारह अनुयोगद्वारोग द्वारा की गई है। वे बारह अनुयोगार उग प्रकार - अविभागीप्रतिच्छेदप्रम्पणा, म्यानप्रापणा, चन्तरपागणा, गणकप्रापगा, ओजयुग्मप्रपणा, पदस्थानप्रापणा, अधस्तनम्यानप्रपणा, गमयप्राणा, वृद्धिमपणा, यवमयप्रम्पणा, पर्गवमानप्रम्पणा और अलगबहल प्रमपणा ॥१८॥ एक-एक अनुभागवन्वरयानम इतने इतने अविभागी प्रतिच्छेद होते है, यह बतलाने के लिए अविभागीप्रतिच्छेदप्रापणा की गई है। एक परमाणुमें गो जघन्य अनुभाग पाया जाता है उगे भविभागीप्रतिच्छेद कहते है । यथा-जो जघन्य अनुभागस्थान है उमो गब परगाणुओको एक जगह स्थापन कारके, उनमेगे सवरो मन्द अनुभाग वाले परमाणुगो गहण करो। उन परमाणुये म्प, रम और गनाको छोडकर नेवल स्पर्गको ही बुद्धि ताग ग्रहण करो और बुद्धिने ही द्वाग उग म्पर्णगुणका नब तक छेद करो जव तक विभागरहित छेद हो गके। उसी विभागरहित अन्तिम छेदको अविभागप्रतिच्छेद कहते है। उग अविभागप्रतिच्छेद रूपगे म्पर्शगुणके सण्डित करनेपर उगमे रामरत जीवरागिगे अनन्तगुणे अविभागी प्रतिच्छेद प्राप्त होते है । उन गव अविभागी प्रतिच्छेदोके ममूहका नाम वर्ग है । पुन उस परमाणुरामूहमरो उसी परमाणु के समान दूगरे परमाणुको गहण करके उसके स्पर्शगुणके भी पूर्ववत् प्रज्ञा द्वारा छेद करनेपर उतने ही अविभागी प्रतिच्छेद प्राप्त होते है। इस क्रगगे पूर्वपरमाणुके सदृश एक-एक परमाणुको लेकर प्रज्ञाके द्वारा उमके स्पर्शगुणके अविभागी प्रतिच्छेद करनेपर एक-एक वर्ग उत्पन्न होता है । जघन्यगुणवाले गव परमाणुओके समाप्त होने तक यह क्रिया करनी होती है । इन सव वर्गाके समूहको वर्गणा कहते है। पुन पूर्वोक्त परमाणुसमूहमेगे एक परमाणुको ग्रहण करके प्रज्ञा द्वारा उसका छेद करनेपर उसमें पूर्वोक्त परमाणसे एक अधिक अविभागो प्रतिच्छेद पाये जाते सते ॥८॥ सवगे य खीणमोहे जिणे य दुविहे असखगुणसेढी । उदओ तन्निवरीओ कालो सग्वेज्जगुणमेढी ॥९॥ -कर्मप्र० उदया। १. 'सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणगोह जिना क्रमशोऽसख्येयगुणनिर्जरा ।-त० सू०९ । ४५ । २, पु० १२, पृ०८७ से।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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