SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छवमागम १११ गई है। नीमके समान प्रथम भागको पहला ग्यान, काजीरके समान दूगरे भागको दूसरा स्थान, विपके समान तीसरे भाग नीगरा स्थान और हालाहलके मान चतुर्थ भागको चौथा ग्यान कहते है । जिन माता अथवा भगाता के अनुभागमं अपने-अपने उक्त चारी स्थान होते है यह अनुभागवन्ध चतु स्थान कहा जाता है और उसको बधिनेवाले जीव चतु स्थानवन्धक कहलाते है । गोप्रकार निन्यानवन्धव और द्विस्यानवन्धक भी गमना चाहिये । गावेदनीयके चतु स्थानवन्धक जीप मवगे विशुद्ध है ।। १६९ ।। त्रिस्थानबन्धक सक्लिष्टतर ( उत्कृष्ट कपायवाले ) है || १७० || द्विस्यानवन्धक जीव उनसे मिलष्टतर है ॥ १७१ ॥ अगात वेदनीयके हिस्थानवत्रक जीव सर्वविशुद्ध है ।। १७२ ।। निग्यानवन्धक जीव सक्लिष्टतर है ॥ १७३॥ चतु स्थानवन्धक जीव उनसे सक्लिष्टतर है ॥१७॥ सातवेदनीयके चतु स्थानवन्धक जीव ज्ञानावरणीयको जघन्य स्थितिको बांधते है ॥ १७५ ॥ माताके निम्यानवन्धक जीव ज्ञानावरणीयकी मध्यम स्थितिको बांधते है ।। १७६ ।। इत्यादि कथन जीवममुदाहारमं किया गया है । प्रकृतिसमुदाहारमे दो अनियोगद्वार है - प्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व | प्रमाणानुगमके अनुसार ज्ञानावरणीय असरयात लोकप्रमाण स्थिनिवन्धाध्यत्रनायस्थान है । इमीप्रकार शेष गात कर्मोकी भी प्रमाणप्ररूपणा करना चाहिये । अल्पबहुत्वके अनुसार आयुकर्मके स्थितिवन्धाध्यवसायस्थान गवसे कम है। नाम और गोत्रकर्मके स्थितिबन्धाध्यवमायस्थान दोनो ही तुल्य असख्यातगुणे है | ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय चारो कमोंके स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान तुल्य है किन्तु नाम - गोनमे असख्यातगुणे है । मोहनीयके स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान मख्यातगुणे है ॥ २४५ ॥ तीरे स्थितिममुदाहार अधिकारमे तीन अनुयोगद्वार है -- प्रगणना, अनुकृष्टि और तीव्रमन्दता ॥ २४६ ॥ प्रगणना अनुयोगद्वार 'अमुक अमुक स्थिति के वन्धके कारणभूत स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान इतने इतने होते है' इसप्रकार स्थितिवन्धाध्यवसायस्थानोके प्रमाणकी प्ररूपणा करता है । यथा -- ज्ञानावरणीयकी जघन्य स्थिति के स्थितिघन्घाघ्यवसायस्थान असख्यातलोकप्रमाण है ।। २४७ ॥ द्वितीय स्थितिके स्थितिवन्घाध्यवसायस्थान असख्यात लोकप्रमाण है ।। २४८ ।। तीसरी स्थितिके स्थितिवन्वाध्यवसायस्थान असख्यातलोकप्रमाण है । इसप्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक असख्यातलोक असख्यातलोक प्रमाण स्थितिवन्धाध्यवसायस्थान है || २५० ॥
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy