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________________ छान-बीन ५४५ ऊपर धर्मशमाभ्युदय-टीकाकी जिस प्रतिका उल्लेख किया गया है, उसके लिखनेवालेके कुटुम्बकी जो सूची दी है, उसमें प्रायः सभी साहुओंकी दो दो तीन तीन भार्यायें हैं, एक तो किसीकी भी नहीं है और सभीके दो दो तीन तीन पुत्रोंके भी नाम दिये हैं। ऐसा नहीं मालूम होता कि सन्तानादि न होनेके कारण उक्त धनी लोग अनेक शादियाँ करते थे, क्योंकि प्रायः उन स्त्रियों के पुत्रोंके भी उल्लेख हैं और उन्हें कुल, शील, रूप, धर्मबुद्धियुक्त और पतिच्छन्दानुगामिनी भी बतलाया है । ऐसी दशामें यही कहा जा सकता है कि उस समय अनेक पत्नियाँ होना बड़े पुरुषोंकी शोभा थी और यह इतना रूढ़ था कि इसमें दोषकी कल्पना ही नहीं हो सकती थी। ५ ---पराशरस्मृतिके श्लोकका अर्थ नष्ट मृते प्रव्रजिते क्लीबे च पतिते पतौ । पञ्चस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते ।। पराशरस्मृतिके इस श्लोक का सीधा अर्थ यह है कि पतिके लापता हो जाने पर, मर जाने पर, साधु हो जाने पर, नपुंसक होने पर और पतित हो जाने पर, इस तरह इन पाँच आपत्तियोंमें स्त्रियाँके लिए दूसरा पति करनेकी या पुनर्विवाहकी विधि है । परन्तु व्याकरणके साधारण नियमके अनुसार 'पति' शब्दका सप्तमी विभक्तिमें 'पतौ' रूप नहीं बनता है, 'पत्यौ' बनता है । इस लिए विधवाविवाहके विरोधी 'पति' शब्दको ‘पतिरिव पतिः ' ( जिसके साथ सगाई की गई हो विवाह नहीं हुआ हो, इस लिए जो पतिके ही समान हो) कहकर उसका 'पतौ' रूप मानकर अर्थ करते हैं। परन्तु वास्तवमें यह अर्थ गलत है। स्मृतिकारने 'पतौ ' रूप विवाहित पतिके लिए ही व्यवहृत किया है। इसके लिए एक बहुत पुराना प्रमाण जैनाचार्य श्री अमितगतिकी धर्मपरीक्षामें मिलता है जो कि वि० सं० १०७० की बनी हुई है। इस ग्रन्थके ग्यारहवें परिच्छेदमें मण्डपकौशिककी कथाके नीचे लिखे श्लोक देखिए तैरुक्तं विधवा क्वापि त्वं संगृह्य सुखी भव । नोभयोर्विद्यते दोष इत्युक्तस्तापसागमे ।। ११ ।।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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