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________________ ५४६ जैनसाहित्य और इतिहास पत्यौ प्रव्रजिते क्लीबे प्रनष्टे पतिते मृते । पञ्चस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते ॥ १२ ॥ तेनातो विधिना ग्राहि तापसादेशवर्तिना। स्वयं हि विषये लोलो गुर्वादेशेन किं पुनः ॥ १३ ॥ इससे मालूम होता है कि विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दीमें भी उक्त श्लोकका विधवाविवाह-पापक अर्थ ही माना जाता था और उसका शायद एक पाटान्तर भी प्रचलित था जिसका रूप १२ वें नम्बरके श्लोक जैसा था। ___ सत्यके अनुरोधसे यह कह देना आवश्यक है कि उक्त कथामें ग्रन्थकर्ताका जो रुख है, वह विधवा-विवाहका विरोधी मालूम होता है। उन्होंने पराशरका उक्त श्लोक उद्धृत करके बतलाया है कि तापसोंके (ब्राह्मण ऋपियों) के शास्त्र में विधवाविवाहका विधान है और यह कहकर उनका मजाक उड़ाया है। अर्थात् ग्यारहवीं सदीमें भी लोकमत विधवा-विवाहका विरोधी था। ६---परिग्रहपरिणामव्रतके दासी-दास गुलाम थे संसारमें स्थायी कुछ नहीं, सभी कुछ परिवर्तनशील है। हमारी सामाजिक व्यवस्थाओंमें भी बराबर परिवर्तन होते रहते हैं, यद्यपि उनका ज्ञान हमें जल्दी नहीं होता। जो लोग यह समझते हैं कि हमारी सामाजिक व्यवस्था अनादिकालसे एक-सी चली आरही है, वे बहुत बड़ी भूल करते हैं। वे जरा गहराईसे विचार करके देखें तो उन्हें मालूम हो जाय कि परिवर्तन निरंतर ही होते रहते हैं, हरएक सामाजिक नियम समयकी गति के साथ कुछ न कुछ बदलता ही रहता है । उदाहरणके लिए इस लेखमें हम दास-प्रथाकी चर्चा करना चाहते हैं । प्राचीन कालमें सारे दशोंमें दास-प्रथा या गुलाम रखनेका रिवाज था और वह भारतवर्ष भी था । इस देशके अन्य प्राचीन ग्रन्थोंके समान जैनग्रन्थों में भी इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं । जैनधर्मके अनुसार बाह्य परिग्रहके दस भेद हैं । बाहिरसंगा खेतं वत्थं धगधणकुष्यभडानि । दुपय-च उप्पय-जाणाणि चेव सयणासणे य तहा। १११९ -भगवती आराधना । इस पर श्री अपरजितसूरिकी टीका देखिए" बाहिरसंगा बाह्यपरिग्रहाः। खेत्तं कर्षणाद्यधिकरणं । वत्थं वास्तु गृहं । धणं
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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