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________________ वनवासी और चैत्यवासी सम्प्रदाय ३५९ पुराने और नये चैत्यवासी गरज यह कि द्राविड संघके स्थापक वज्रनन्दि आदि तो पुराने चैत्यवासी हैं जिन्हें पहले ही जैनाभास मान लिया गया था और कुन्दकुन्दान्वयी तथा मूलसंधी उनके बादके नये चैत्यवासी हैं जिन्हें देवसेनन तो नहीं परन्तु उनके बहुत पीछेके तेरहपंथके प्रवर्तकोंने जैनाभास बतलाया । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें जिस अर्थमें सुविहित या विधि-मार्गका प्रयोग होता है लगभग उसी अर्थमें पहले दिगम्बर सम्प्रदायमें कुन्दकुन्दान्वय या मूलसंघका उपयोग किया जाता था, और कुन्दकुन्दान्वय शायद मूल संघसे भी पहले प्रचलित था। किन्तु आगे चलकर ये दोनों ही संज्ञायें रूढ हो गई, अपने मूल अर्थ --आगमोक्त चर्या--को बतलानेवाली न रहीं और इस लिए जब मूलसंघी और कुन्दकुन्दान्वयी मुनि भी शिथिल होकर चैत्यवासी मठपति बन गये तब भी ये उनके पीछे लगी रहीं। यहाँ तक कि राजाओं जैसे ठाठवाटसे रहनेवाले भट्टारक भी इन्हें एक पदवीके रूपमें धारण किये रहे । जो जैनाभास नहीं थे, वे भी चैत्यवासी हुए इस तरह जिन्होंने पहले द्राविड संघादिको जैनाभास कहा था, वे मूलसंधी कुन्दकुन्दान्वयी भी आगे चलकर जैनाभास बन गये । इसके एक नहीं, बीसों प्रमाण मिलते हैं जिनमेंसे थोड़ेसे ये हैं १ मर्कराके दान-पत्रका जिक्र ऊपर किया जा चुका है । उसमें श० सं० ३८८ ( वि० ५२३ ) में महाराजा अविनीतद्वारा कुन्दकुन्दान्वयके चन्द्रनन्दि भट्टारकको जैनमन्दिरके लिए एक गाँव दान किये जानेका उल्लेख है। २ महाराजाधिराज विजयादित्यने पूज्यपादके शिष्य उदयदेवको 'शंख-जिनेन्द्र' मन्दिरके लिए श० सं० ६२२ में कर्दम नामका गाँव दान किया । ३ राष्ट्रकूट महाराजाधिराज कृष्ण तृतीयके महासामन्त अरिकेसरीने श० स० ८८८ में अपने पिता बद्दिगके बनवाये शुभधाम जिनालयकी मरम्मत और चूनेकी कलई कराने तथा पूजोपहार चढ़ाने के लिए श्रीसोमदेवसूरि ( यशस्तिलकके कर्ता) को बनिकटुपुलु नामका गाँव दानमें दिया । यह ताम्रपत्र परभणी (निजामस्टेट ) १देखो म० म० ओझाकृत सोलंकियोंका इतिहास ।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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