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________________ ३५८ जैनसाहित्य और इतिहास काकोपल आनायके सिद्धनन्दि मुनिको अलक्तक नगरके जैनमन्दिरके लिए कुछ गाँव दान किये गये हैं । सिद्धनन्दिके शिष्यका नाम चिकाचार्य था जिनके कि नागदेव, जिननन्दि आदि ५०० शिष्य थे । दान देनेवाले पुलकेशी प्रथम ( चालुक्य ) के सामन्त सामियार थे' ।। कौण्डकुन्दान्वय मूलसंघसे पुराना जान पड़ता है । क्योंकि श० सं० ३८८ (वि० सं० '५३३ ) के मर्करा ( कुर्ग) के दानपत्रमें चन्द्रनन्दिको कौण्डकुन्दान्वयी लिखा गया है और उसमें मूल संघका उल्लेख नहीं है। __ परन्तु यदि यह बात मान ली जाय कि द्राविड सघादिको चैत्यवासी होनेके कारण जैनाभास बतलाया गया होगा तो प्रश्न होता है कि देवसेनसूरिका दर्शनसार वि० सं० ९९० की रचना है, इस लिए जिस शिथिलाचारके कारण उन्होंने द्राविडसंध काष्ठासंघ आदिको जैनाभास बतलाया है, वही शिथिलाचार मूलसंघी और कुन्दकुन्दान्वयी मुनियोंमें भी तो प्रविष्ट हो गया था । क्योंकि विक्रमकी छठी सदी तकके ऐसे अनेक लेख मिले हैं जिनसे मालूम होता है कि वे भी मन्दिरोंकी मरम्मत आदिके निमित्त गाँव-जमीन आदिका दान लेने लगे थे । तब उन्हें जैनाभास क्यों नहीं बतलाया ? इसका समाधान इस तरह हो सकता है कि देवसेनसूरिने दर्शनसारमें जो गाथायें दी हैं वे स्वयं उनकी नहीं, पूर्वाचार्योंकी बनाई हुई थीं और चूँकि पूर्वाचार्य स्वयं वनवासी थे, इसलिए उनकी दृष्टि में द्राविड संघादिके साधु जैनाभास होने ही चाहिए । परन्तु जिस शिथिलाचारके कारण पूर्वाचार्योंने उन्हें जैनाभास कहा था, वह देवसेनकी दृष्टिके समक्ष स्पष्ट नहीं था । क्योंकि समय बहुत बीत चुका था, और स्वयं उनके सघमें भी उसका प्रवेश हो चुका था, इसलिए वह उन्हें उतना अधिक खटकता भी न होगा। परन्तु चूँकि उक्त सब संघ प्रतिपक्षियोंके रूपमें उनसे अलग मौजूद थे और उनके संघसे बाह्य थे इसलिए उनके लिए जैनाभास शब्दका प्रयोग करनेमें उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ और अपने कुन्दकुन्दान्वयका शिथिलाचार आम्नाय-मोहके कारण जैनाभासरूपमें प्रतीत न हुआ। १ देखो, इंडियन एण्टिक्वेरी जिल्द ७, पृ० २०९-१७ । २ देखो एपीग्राफिका कर्नाटिकाकी पहली जिल्दका पहला लेख । ३-पुव्वायरियकयाई गाहाई संचिऊण एयत्थ । nिe m a ... ..... -: - ॥ ..... ........
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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