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________________ ३६० जैनसाहित्य और इतिहास में श्री शं० ना० जोशीको हाल ही प्राप्त हुआ है। __इसके बादके तो सैकड़ों शिलालेख हैं जिनमें मूलसंधी या कुन्दकुन्दान्वयके मुनियोंको गाँव और भूमियाँ दान की गई हैं । श्रवणबेल्गोलका जैन-शिलालेख-संग्रह तो ऐसे दानोंसे भरा हुआ है । नं० ८. के श० सं० १०८० के शिलालेखमें लिखा है कि महाप्रधान हुल्लमय्यने होटसल-नरेशसे सवणेरु गाँव इनाममें पाकर गोम्मट स्वामीकी अष्टविधपूजा और ऋषिमुनियोंके आहारके हेतु अर्पण कर दिया । नं. ९० के श०सं० ११००के लेखमें भी पूजन और मुनियोंके आहारके लिए नयकीर्ति सिद्धान्तचक्रवर्तीको दान देनेका उल्लेख है। ४० नं. के लेखसे मालूम होता है कि हुल्लप मंत्रीने अपने गुरु उन देवेन्द्रकीर्ति पंडितदेवकी निषिद्या बनवाई जिन्होंने रूपनारायण मन्दिरका जीर्णोद्धार कराया था और एक दान-शाला भी निर्माण कराई थी। इन सब लेखोंसे स्पष्ट हो जाता है कि हमारे इन बड़े बड़े मुनियों के अधिकारमें भी गाँव बागीचे आदि थे । वे मन्दिरोंका जीर्णोद्धार कराते थे, दूसरे मुनियोंको आहार देते थे और दानशालायें भी बनाते थे । गरज यह कि उनका रूप पूरी तरहसे मठपतियों जैसा हो गया था और इसका प्रारम्भ संभवतः विक्रमकी छठी २ देखो भारत-इतिहास संशोधक मंडल पूनाका त्रैमासिक ( भाग १३ अंक ३ ) और इस लेख-संग्रहके पृष्ठ ९०-९२ । दोनों जगह उक्त दानपत्रकी पूरी नकल दी गई है। २ इंद्रनन्दिकृत नीतिसारसे भी जो केवल मुनियों के लिए बनाया गया है ( अनगारान्प्रवक्ष्यामि नीतिसारसमुच्चयम् ), इन बातोंकी पुष्टि होती है कि मुनि लोग मन्दिरोंका जीर्णाद्धार कराते थे, आहार-दान देते थे और थोड़ा बहुत धन भी रखते थे। तस्मै दानं प्रदातव्यं यः सन्मार्गे प्रवर्तते । पाखंडिभ्यो ददद्दानं दाता मिथ्यात्ववर्द्धकः ॥ ४८ ॥ मध्याह्ने दुःखितान् दीनान् भोजनादिभिरादरात् अनुगृह्णन्यतिः संघपूजनीयो भवेत्सदा ॥ ४१ ॥ जीर्णजिनगृहं बिम्बं पुस्तकं च सुदर्शनम् । उद्धार्य स्थापनं पूर्वपुण्यतोऽधिकमुच्यते ॥ ४९ ।। क्वचित्कालानुसारेण सूरिव्यमुपाहरेत् । संघपुस्तकवृद्धयर्थमयाचितमथाल्पकम् ॥ ५०
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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