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________________ वनवासी और चैत्यवासी सम्प्रदाय ३५७ २-चल्लग्रामके वयिरेदेव मन्दिरमें श० सं० १०४७ का एक शिलालेख है जिसमें इन्हीं द्राविडसंघीय वादिराजसूरिके वंशज त्रैविद्य श्रीपाल योगीश्वरको होय्सलवंशके विष्णुवर्द्धन पोरसलदेवने वसतियों या जैनमन्दिरोंके जीर्णोद्धार और ऋषियोंके आहार-दानके लिए शल्य नामक ग्राम दान दिया था । अर्थात् उन्होंने जैनमन्दिरोंका जीर्णोद्धार भी कराया होगा और आहार-दानका प्रबन्ध भी किया होगा। ३-लाट-वागड़ संघ काष्ठा संघकी ही एक शाखा है, जो देवसेनमूरिके मतसे जैनाभास था । दुबकुण्ड ( ग्वालियर)के जैनमन्दिरमें वि० सं० ११४५ का एक शिलालेख मिला हैं । इस संघके विजयकीर्ति मुनिके उपदेशसे दाहड़ आदि धनियोंने उक्त मन्दिर बनवाया और कच्छपघात या कछवाहे वंशके राजा विक्रमसिंहने उसके निष्पादन, पूजन, संस्कार और कालान्तरमें टूटे फूटेकी मरम्मतके लिए कुछ जमीन, वापिकाके सहित एक बगीचा और मुनिजनोंके शरीराभ्यंजन (तैल-मर्दन ) के लिए दो करघटिकायें (?) दीं। ये बातें भी स्पष्ट रूपसे चैत्यवासियोंके शिथिलाचारको प्रकट करती हैं। __ खोज करनेसे काष्ठासंघी और माथुरसंघी मुनियों को भी दिये हुए इसी तरहके दान-पत्र मिल सकेंगे। कुन्दकुन्दान्वय और मूलसंघ पूर्वोक्त जैनाभासोंको छोड़कर शेष दिगम्बर सम्प्रदायको मूलसंघ कहा जाता है। परन्तु हमारा खयाल है कि यह नामकरण बहुत पुराना नहीं है । अपनेसे अतिरिक्त दूसरोंको अमूल-जिनका कोई मूल आधार नहीं-बतलाने के लिए ही यह नामकरण किया गया होगा और यह तो वह स्वयं ही उद्घोषित कर रहा है कि उस समय उसके प्रतिपक्षी दूसरे दलोंका अस्तित्व था। हमें मूलसंघका सबसे पहला उल्लेख आल्तम (कोल्हापुर) में मिले हुए श० सं० ४११ ( वि० सं० ५४६ ) के दानपत्रमें मिलता है जिसमें मूलसंघ १ देखो जैनशिलालेखसंग्रहका ४९३ नं० का शिलालेख । २ एपिग्राफिआ इंडिका जिल्द २, पृ० २३७-४० । ३ शतपदीकारने भी इस बातपर आक्षेप किया है कि दिगम्बर साधु तैल-मर्दन कराते थे। देखो आगे शतपदीके उद्धरण ।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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