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________________ वनवास कारण २३६ -rrrrrrr श्राबरू तन राज दौलत, सब हमारे पास है। वस यह अलौकिक धर्म कारण ही बनो का वास है। प्रसन्न होकर मातजी, आज्ञा मुझे दे दीजिये। सैर करने सुत गया यह ध्यान मन धर लीजिये। दाहा ( कौशल्या) अनजान पुत्र मैं हूं नहीं, रहा जो यो बहकाय। , छइया मइया से तेरा, विरह सहा नही जाय ॥ छंद ( कौशल्या) परभव मुझे पहिले पहुंचा, कर फेर बन मे जाइये। उपकार कर मुझ पर कुवर, भारी यह दुख मिटाइये ।। खेद अतिमाता का तूने, ख्याल कुछ भी न किया । दुख सहा जिसने अतुल, और दूध है जिसका पिया ।। बेशक पिता का फिकर भी, तुमको मिटाना चाहिये। किन्तु मात का भी कुमर दिल न दुखाना चाहिये ।। या तो कर मेरा भी कहना, या किसी का भी न कर। क्या कहूँ मै कैकयी को, आज यह मांगा है वर ॥ दोहा ( राम ) शूर वीर की तू सुता, मत कायर बन मात । तू ही बतलादे मुझे, बने किस तरह बात ॥ तू ही बतला हमे आज ऋण कैसे पिता उतारेंगे। ' इस झूठी दुनिया को तज कर, कैसे शुभ संयम धारेंगे। एक यही उपाय है बस माता, जिससे सब कार्य सिद्ध बनें। वर हो कैकयी माता का, और पिता भी जिससे उऋण बनें ।।
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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