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________________ बनवास कारण २३७ . . . . . - - - - - - दोहा मन में खूब विचार कर, बोले रामकुंवार । पिता आपका भरत सुत, विनयी आज्ञाकार ॥ मेरे होते राज्य भरत ने, करना नही पसन्द किया। फिर सोच समझ कर और, एक हमने ऐसा प्रबन्ध किया ॥ अपने वचनो का पास भरत को निकले कभी न तोड़ेगा। मेरे जाने के बाद करेगा राज, हुकम नही मोड़ेगा। हे पिता आपका ऋण उतरा, यह खुशी मेरे मन भारी है । अब जाता हूं वन सैर आज, लेवो प्रणाम हमारी है। इस चरण रज निर्गुणी राम के, हाथ शीश पर धर दीजे । मै सेवा न कर सका, आपकी क्षमा दोष सब कर दीजे ।। दोहा रामचन्द्र के जब सुने, दशरथ नृप ने बैन । मूच्छित हो धरणी गिरा, नीर बहाता नैन । झट गिरा भरत आ चरणो मे, नैनो से नीर बहाता है। हा खेद निकल गया क्या मुख से, गद्-गद् स्वर अति पछताता है। अब हो सचेत दशरथ राजा, दुःख सागर बीच समाया है। श्री राम ने जाकर माता के, चरणो में शीश झुकाया है। दोहा (राम) माता मेरी लीजिये, चलत समय प्रणाम । साधन चौदह वर्ष मे, होगा बन का धाम ।। छन्द जव मात के चरणो झुका, पाँचों ही अंग निमाय कर । मानिन्द चम्पक बेल सम, रानी गिरी मुआय कर ॥
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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