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________________ १२६ रामायण दोहा कैसे पाला था इसे, लाड चाव के साथ । मेरे गौरव का किया, इस दुष्टा ने घात ।। अमृत मे विष बेल और, घन से बिजली होती पैदा । दीपक से जैसे काजल, तैसे यह मुझसे हुई पैदा ॥ सर्प कटी हुई अंगुली को, रखने से जहर पसरता है । इसी तरह इसको रखने से, अपयश मेरा बरसता है ।। दोहा % 3D देख सका ना दुःख महा, मन्त्री चतुर सुजान। राजा को कहने लगा, ऐसे मधुर जबान ।। राजन् करना चाहिये, सोच समझ कर काम । गुप्त महल रखो इसे, लेवो भेद तमाम ।। ससुर गृह रूसे लड़की तो, पीहर में आ जाती है । यहाँ से आगे और कही पर, ठौर नहीं दिखलाती है । जल मे नही अग्नि होती, ना ज्ञान असंगी पशु में है। इस लड़की मे कोई दोष नही, यदि है तो केवल ससु में है। ___ दोहा मन्त्री तुमको नही पता, पवन जय प्रदेश । यहां भी घृणा थी उन्हे, कारण कौन विरोष ।। अपनी बेइज्जती पर मन्त्री, सब कोई पर्दा पाता है । ऐसा कौन है दुनिया में, जो अपनी धूल उड़ाता है । जब छिपी हुई यह बात नहीं, फिर कहो तो क्या बन सकता है। , यदि वमन उछल गई छाती से, तो रोक कौन जन सकता है।
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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