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________________ ६० रामायण ~~~~wwwwwer आपके होते अनर्थ हो, फिर यही तो है दुख बड़ा । रहे यज्ञ में फूक पशु, कई दुष्ट अनार्य खोद गढा ॥ सद् उपदेश दिया तो, अग्निहोत्री ने मारा मुझको । चल रक्षा करो अनाथो की, संग ले जाने आया तुमको ।। चौपाई राज नगर और मरुत नरेश, मिथ्या दृष्टि अधर्म विशेष । कुगुरु जन का अति भरमाया, पशुवध महा यज्ञ रचाया ।। इतनी सुन दशकन्धर धाये, पशुओ के जा प्राण बचाये ॥ यज्ञ विध्वंस किया तब सारा, याज्ञिको के मन रोष अपारा । आत्मरूपी यज रचाओ, द्वादश तप विधि अग्नि जलायो। अशुभ कर्म सब दग्ध बनाओ, यो कहे नारद परम पद पावा ।। दोहा मरुत भूप की पुत्री थी, कनकप्रभागुण खान । रावण संग विवाह दई, साथ मान सन्मान ॥ पा करके सन्मान अधिक मथुरा को हुवे रवाना । था मधु वहां का भूप ठाठ, जिसका था अधिक सुहाना । मिले प्रेम से रावण को, कुछ भेंट किया नजराना । देख हाथ त्रिशूल, मधु से पूछे रावण दाना । दोड़ पूछता गुण नृप रावण, मधु तब लगा सुनावन । चमरेन्द्र ने मुझे दई है, पूर्व भवका भित्र मेरा जिन सभी कथा कही है। दोहा ऐरावत क्षेत्र भला, शतद्वारा पुरी नाम । सुमित्र भूप का मित्र है, प्रभव चतुर सुनाम ।।
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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