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________________ रावण दिग्विजय ८६ चढ़ी फौज लड़ने के लिये, अप्पस मे शस्त्र चलाने लगे। और कई हुए रण भेट शूरमा, पीठ दिखाकर कई भगे॥ लिया बांध रावण ने नृप को, उल्टा बन्ध चढ़ाया है। तब जंघाचारी महा मुनि ने, आकर के छुड़वाया है। यह पिता सहस्रांशु नप का, सतबाहु नाम मुनीश्वर था। जिन नाशवान दुनिया को, तजकर पकड़ा मारग संयम का ॥ दोहा सहस्त्रांशु महाराजा ने, दिल मे किया विचार । तज झझट संसार का, लेवे संयम धार ।। सत्यशरण लिया जिनवर का, आधीन न जो किसी ताज का है। दुनियां का सुख अनित्य सभी, नित्य परम पद राज का है। है याद मुझे वह समय, मेरे एक मित्र ने था वचन दिया। अनरण नरेश ने उसी दीक्षा का, इकरार मेरे था साथ किया। दोहा अनरण नरेश को उसी दम, दीनी खबर पहुंचाय । समझ लिया कि हेच है, दनिया का उत्साह ।। अनरण नप भी सोचता है मेरा सकेत ।। इससे बढ करके नही, दुनियां मे कोई हेत ॥ अनरण भूपने उसी समय, दशरथ को राज्य सभाल दिया। दई पुरी अयोध्या छोड़, संग मित्र के संयम धार लिया ।। उधर सहस्रांशु सुत के, सिर ताज दिया दशकन्धर ने। और उसी समय उसको, अपने आधीन किया दशकन्धर ने ॥ दोहा नारद घबराया हुवा, आया रावण पास । आदर पा भूपाल से, कहा मुनि ने भाप ॥
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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