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________________ रावण-वश ज्योतिपुर पति वीर नरेश्वर, नन्दवती की जाई जो । पंकजश्री कमलवर नयनी, विभीषण को व्याही वो ॥ ६१ दोहा मंदोदरी के सुत हुआ, महावली सग्व धाम । लक्षण व्यंजन देख, शुभ मेघाद दिया नाम ॥ मेघवर्ण सम नयन है, दूजा सुत अभिराम । मेघवाहन वारु कुमर, मात-पिता दिया नाम ॥ जब देखा शक्ति पूर्ण है, तब छेड़ छाड़ करवाने लगे । श्री कुम्भकर्ण और भ्रात विभीषण, लूट लक मे पाने लगे । फिर वैश्रमण ने भेजा दूत, सुमाली के समझाने को । जो चाहिये मुख से माग लेवो यदि नहीं तुम्हारे खाने व । दोहा राजदूत नेजा कहा, नमस्कार महाराज । अब आज्ञा उनकी सुनो, जो मेरे सिर ताज ॥ महाराजा ने फरमाया है, यह क्षत्री कुल का धर्म नहीं । जो लूट मार कर ले जाना, क्या ती तुमको शर्म नहीं || जिस जिस वस्तु की चाहना है, ले जावो यहां कुछ कमी नहीं । कल्याण श्राप का तभी तलक, जब तक रणभूमि जमी नहीं ॥ दोहा सुनी दूत की जिस समय, रसना कटुक गम्भीरं । अर्ध चन्द्र धक्का दिया, दशकंधर बलवीर ॥ जा कायर धनदत्त को कह दे, किसको तलवार दिखाता है । अब सावधान हो जल्दी से दशकंधर लंका आता है ॥ रणभेरी जिस समय बजी, सब शूर वीर हर्षाये झट उसी समय जा लका पै, अपने विमान श्री #1
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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