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________________ ६४ जैन गनायण द्वितीय वर्ग । कर मरुत राजाके पास गया और उससे मैंने पूछा:"तुम यह क्या कर रहे हो ?" मरुतने उत्तर दिया, – “ब्राह्मणोंके कथनानुसार यह यज्ञ होता है । अन्तर्वेदीमें देवताओं की तृप्ति के लिए पशु होमना महा धर्म है; यह स्वर्गका हेतु बताया गया है । इस लिए आज मैं भी इन पशुओं को होमकर यज्ञ पूरा करूँगा । " ALFAAAAAA मैंने उससे कहा, " यह शरीर वेदी हैं, आत्मा यजमान हैं, तप अग्नि है, ज्ञानव्रत है, कर्मसमिध हैं, क्रोधादि कषायें पशु हैं, सत्य यज्ञस्तंभ है, सर्व प्राणियोंकी रक्षा दक्षिणा हैं और ज्ञान, दर्शन चारित्र- ये तीन रत्न तीन देव (ब्रह्मा, विष्णु और महेश ) हैं । यह वेद- कथित यज्ञ, यदि योग विशेषसे किया जाय तो मुक्तिका साधन होता है। जो लोग राक्षसके समान बन, छाग- बकरा - आदि प्राणियोंको मारकर यज्ञ करते हैं, वे मरनेपर घोर नरकमें जाते हैं; और चिरकालतक दुःख भोगते हैं । हे राजा ! तुम उत्तम वंशमें उत्पन्न हुए हो; बुद्धिमान और समृद्धिवान हो; इस लिए शिकारियोंके करने योग्य इस पापमय कार्य से मुँह मोड़ो । यदि प्राणियोंके वध ही से स्वर्ग मिलता हो तो थोड़े ही दिनोंमें यह सारा जीव लोक खाली होजाय । " मेरी बातें सुन, यज्ञकी आग्रके समान, सारे ब्राह्मण क्रोध से भभक उठे और हाथमें लकड़ियाँ लेकर मुझको मारने लगे । मैं वहाँसे भागकर, नदीके पूरमें पड़ा हुआ 1
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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