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________________ रावणका दिग्विजय । मनुष्य जैसे द्वीपको पाकर शांत होता है वैसेही, तुम्हारे पास आकर शान्त हुआ हूँ। हे रावण! तुम्हारे पास आनेसे मेरी तो रक्षा हुई, मगर उन नरपशुओद्वारा यज्ञमें होमे जानेवाले पशुओंकी वहाँ कौन रक्षा करेगा ? इसलिए तुम चलकर उन्हें बचाओ।" नारदके वचन सुन, अपनी आँखोंसे सब बातें देखनेकी इच्छा कर, रावण विमानमेंसे उतरा और यज्ञमंडपमें गया। मरुत राजाने उसकी, पैर धो, सिंहासनपर बिठग, पूजा की। रावण क्रोध करके बोला:-"तुम नरकके अभिमुख होकर, ऐसा यज्ञ क्यों करते हो ? तीन लोकके हितकर्ता सर्वज्ञ पुरुषोंने अहिंसामें धर्म बताया है। फिर पशु हिंसात्मक यज्ञसे धर्म कैसे हो सकता है ? इस यज्ञसे यह लोक और परलोक दोनों बिगड़ते हैं । इसलिए यह यज्ञ मत करो। यदि करोगे तो इस लोकमें तुम्हें मेरे राज्यके कारागृहजेलखाने में रहना पड़ेगा और परलोकमें नरकवास भोगना पड़ेगा।" मरुत राजाने यज्ञ करना छोड़ दिया । सारे जगतको भयभीत करनेवाली रावणकी आज्ञाको नहीं माननेका साहस कौन कर सकता था ? उसकी आज्ञा अलंघनीय थी। तत्पश्चात राबणने नारदसे पूछा:-" ऐसे पशुवधात्मक यज्ञ कबसे प्रारंभ हुए हैं ?" नारद बोला:-" चेदीदेशमें
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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