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________________ १८ जैन रामायण प्रथम सर्ग । अपने पति से कही । रत्नश्रवाने कहा :- " इस स्वप्न से तेरे ऐसा पुत्र उत्पन्न होगा, जो संसार में अद्वितीय होगा । " स्वप्न प्राप्त होनेके बाद उसने चैत्यकी पूजा की; और उस रत्नश्रवाकी प्रियाने महासारभूत गर्भ धारण किया । गर्भके सद्भावसे कैकसीकी वाणी अत्यंत क्रूर हो गई और उसका सारा शरीर श्रमको जीतने वाला दृढ़ हो गया । दर्पण होते हुए भी वह खड्गमें मुख देखने लगी; और निःशंक होकर इन्द्रको भी आज्ञा करनेकी इच्छा रखने लगी । हेतु बिना भी उसके मुखसे हुंकार शब्द निकलने लगा; गुरुजनके आगे मस्तक नमाना भी उसने बंद कर दिया; और शत्रुओंके सिर पर सदा सिर रखनेकी वह इच्छा रखने लगी । इस तरह गर्भके प्रभावसे वह कठोर भाव धारण करने लगी । समय आने पर शत्रुओंके आसनको कँपानेवाले और चौदह हजार वर्षकी आयुवाले पुत्रका उसने प्रसव किया। सूतिकाकी शय्या में उछलता हुआ और चरणोंको पछाड़ता हुआ वह अति पराक्रमी शिशु खड़ा हो गया; और पासमें रक्खे हुए करंडिएमेंसे उसने नौ माणिक्यवाले हारको-जो हार पहिले भीमेंद्र ने दिया थाअपने हाथोंसे बाहिर निकाल लिया; और अपनी सहज चपलता से उसने हारको गलेमें पहिन लिया । यह देख १ राक्षस नामक व्यंतर निकायका इन्द्र |
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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