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________________ राक्षसवंश और वानरवंशकी उत्पत्ति । १७ एक विद्याधरकी कुमारी कन्या, अपने पिताकी आज्ञासे, उसके पास आई और कहने लगी:-" मैं मानवसुन्दरी नामक महाविद्या तुझे सिद्ध हुई हूँ।" यह वचन सुन, विद्यासिद्ध हुई जान, रत्नश्रवाने जपमाला डाल दी। आँखें खोलने पर वह विद्याधर-कुमारी उसकी दृष्टिमें आई । रत्नश्रवाने पूछा:-" तू कौन है ? ” उसने उत्तर दिया:-" अनेक कौतुकोंके घररूप 'कौतुकमंगल' नामके नगरमें 'व्योमबिन्दु' नामका एक विद्याधर राजा है। कौशिका नामकी उसकी एक बड़ी लड़की है; वह मेरी बहिन लगती है । यक्षपुरके राजा 'विश्रवा के साथ उसका ब्याह हुआ है । उसके एक नीतिमान · वैश्रमण नामका पुत्र है; जो अभी इन्द्रकी आज्ञासे लंकापुरीमें राज्य कर रहा है । मेरा नाम 'कैकसी' है । किसी निमित्तियाके कहनेसे मेरे पिताने मुझे तुमको सौंपा है। इसलिए मैं यहाँ आई हूँ।" फिर सुमालीके पुत्र रत्नश्रवाने अपने बंधुओंको बुलाकर वहीं कैकसीके साथ ब्याह किया और पुष्पक नामके विमानमें बैठकर उसके साथ क्रीड़ा करने लगा। एक वार कैकसीने रातमें स्वम देखा-उसने देखा कि हाथी के कुंभस्थलको भेदन करनेमें आसक्ति रखनेवाले सिंहने उसके मुखमें प्रवेश किया है। सबेरे ही उसने स्वप्नकी बात
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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