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________________ ३२० जैन रामायण सातवाँ सगं । उस समय विभीषणको भली प्रकार से जाननेवाला विशाल नामा खेचर बोल उठा :- " हे प्रभो ! विभीषण ही इन राक्षसोंमें एक धर्मात्मा और महात्मा है । इसने सीताको छोड़ देनेके लिए रावणको कहा था । रावणने कुपित होकर इसको निकाल दिया । इसीलिए यह आपके शरणमें आया है । इसमें लेशमात्र भी मिथ्या बात नहीं है । " सुनकर रामने उसको अपने शिविर में आने की आज्ञा दी । विभीषणने जाकर रामके चरणोंमें सिर रक्खा । रामने उसको उठा कर सीने से लगा लिया । विभीषण बोला :- " हे प्रभो ! मैं अपने अन्यायी ज्येष्ठ बन्धुको छोड़कर आपके शरण में आया हूँ । इसलिए मुझको भी सुग्रीवकी भाँति अपना आज्ञाकारी भक्त समझिए और सेवाकी आज्ञा दीजिए । " रामने उस समय उसको आश्वासन देकर लंकाका राज्य देने को कहा | " न मुधा भवति क्वापि, प्रणिपातौ महात्मसु । ( महात्माओं को जो प्रणाम किया जाता है, वह कभी व्यर्थ नहीं जाता है | ) रावणका युद्धके लिए लंकाके बाहिर आना । हँसद्वीपमें आठ दिनतक रहनेके बाद राम, कल्पान्तकालकी भाँति, सेना सहित, लंकाकी ओर चले । लंका के
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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