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________________ (४५७) र गति सह्यो ॥ ५ ॥ एक पत्योपम मान, वैमानिक सुरनु हो, ज्योतीषीनो जाणजो वली ॥पल्योपमनो आतमो नाग, आगममांहे हो कहे एम केवली ॥६॥ ॥धार अढारमुं॥ ढाल वीशमी ॥ वूतां दल वादल ॥ ए देशी ।। ॥ श्राहारने शरीर इंडिय हो, सासोसास नासा मण ॥ सुर नर तिरि निरयने हो, ए ब पर्याप्ति गण ॥१॥ पांचे थावरमांहे हो, पर्याप्ति चारे कही ॥ वली पंच पर्याप्ति हो, विकलेंडीयमांहे लही ॥ ५ ॥ ॥हार उगणीशमुं ॥ ढाल एकवीशमी ॥ राम चंदके बाग ॥ ए देशी॥ ॥ षट दिशिनो ले थाहार, सघला जंतु सदा ॥ लोकने खूणे जीव, पंच चार त्रण दिशि तां ॥१॥ ॥हार वीशमुं ॥ ढाल बावीशमी ॥ राम सीताने धीज करावे रे ॥ ए देशी॥ ॥ हवे संज्ञा त्रण कहेशे रे, दीर्घकालिकी पहेली दीसे ॥ हितोपदेशिकी बीजी रे, दृष्टिवादोपदेशिकी त्रीजी ॥ १ ॥ देवताना दमक तेर रे, तिर्यच नारक नहिं फेर ॥ संझा ए पहेली दाखी रे, दीर्घकालिकी सूत्र ने साखी ॥२॥ विकलेंश्यिमां हितोपदेशा रे, सं झा रहित थावर अशेषा ॥ नरने पहेली बे नाखी रे, कोईकने त्रीजी पण दाखी ॥ ३ ॥
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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